
मॉस्को।
विदेश में बेहतर भविष्य की तलाश भारतीय युवाओं को लगातार आकर्षित करती रही है। अब इस दौड़ में अमेरिका या यूरोप ही नहीं, बल्कि रूस भी एक नया ठिकाना बनकर उभर रहा है। हाल ही में भारत से कामगारों का एक समूह रूस पहुंचा है, जहां वे सफाईकर्मी के रूप में काम कर रहे हैं। खास बात यह है कि इनमें इंजीनियर और सॉफ्टवेयर प्रोफेशनल भी शामिल हैं, जो ऊंची सैलरी के कारण इस काम को अपनाने से नहीं हिचक रहे।
इंजीनियर से सफाईकर्मी तक का सफर
26 वर्षीय मुकेश मंडल इसकी सबसे बड़ी मिसाल हैं। इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर चुके मुकेश भारत में सॉफ्टवेयर डेवलपर के तौर पर काम कर रहे थे। चार महीने पहले वह रूस पहुंचे और अब सेंट पीटर्सबर्ग में सड़क सफाई का काम कर रहे हैं।
इस काम के बदले उन्हें हर महीने 1 लाख 10 हजार रुपये (करीब 1 लाख रूबल) की सैलरी मिल रही है, जो भारत में इंजीनियर रहते उनकी कमाई से कहीं ज्यादा है।
कंपनी उठा रही पूरा खर्च
मुकेश जिस कंपनी में काम कर रहे हैं, उसका नाम ‘कोलोम्याझ्कोये’ है, जो सड़क रखरखाव का काम करती है। यह कंपनी न सिर्फ भारतीय मजदूरों को रोजगार दे रही है, बल्कि
- कागजी कार्रवाई
- रहने की व्यवस्था
- रोजमर्रा की जरूरतों
का पूरा खर्च भी खुद उठा रही है। ऐसे में मजदूरों को अपनी सैलरी में से बहुत कम खर्च करना पड़ता है।
17 भारतीय, एक जैसी कहानी
सेंट पीटर्सबर्ग पहुंचे इस समूह में भारत के अलग-अलग हिस्सों से आए 17 कामगार शामिल हैं, जिनकी उम्र 19 से 43 साल के बीच है। इनमें से कुछ पहले आईटी सेक्टर में थे, तो कुछ अन्य तकनीकी क्षेत्रों से जुड़े रहे हैं। सभी का एक ही मकसद है—ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना।
‘काम छोटा–बड़ा नहीं, कमाई मायने रखती है’
रूसी मीडिया संस्थान फोंटांका से बातचीत में मुकेश मंडल ने कहा,
“मैंने कई मल्टीनेशनल आईटी कंपनियों में काम किया है। मैं मूल रूप से डेवलपर हूं, लेकिन यहां आने का कारण साफ है—यहां कमाई ज्यादा है। मेरे लिए काम सबसे ऊपर है, काम क्या है, यह नहीं।”
उन्होंने साफ किया कि उनका इरादा रूस में स्थायी रूप से बसने का नहीं है।
“कुछ साल विदेश में काम करूंगा, पैसा कमाऊंगा और फिर भारत लौट जाऊंगा। सड़क साफ करने के काम की भी अपनी इज्जत है और मैं इसे पूरे सम्मान के साथ करता हूं।”
निष्कर्ष
रूस में भारतीय इंजीनियरों का सफाईकर्मी बनना सिर्फ एक खबर नहीं, बल्कि यह भारत की रोजगार हकीकत और वैश्विक श्रम बाजार की बदलती तस्वीर को दिखाता है। जहां भारत में पढ़े-लिखे युवाओं को सीमित आय मिलती है, वहीं विदेशों में श्रम की कद्र और बेहतर वेतन उन्हें नए फैसले लेने पर मजबूर कर रहा है।
मुकेश मंडल जैसे युवाओं की कहानी बताती है कि आज की पीढ़ी के लिए काम की गरिमा पद से नहीं, मेहनत और कमाई से तय होती है।