
उत्तर भारत की बावरिया जनजाति राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश और गुजरात में फैली हुई है। ऐतिहासिक रूप से यह समुदाय जंगलों में शिकार, जाल फेंकना, लकड़ी, शहद और औषधीय पौधों पर निर्भर रहा। खुद को राजपूत योद्धाओं का वंशज मानने वाले बावरिया आज भी अपनी वीरता पर गर्व करते हैं, लेकिन समाज की नजर में इन्हें बेरहम अपराधी माना जाता है।
ब्रिटिश शासन के दौरान 1871 में इन्हें “आपराधिक जनजाति” घोषित कर दिया गया। इसके चलते सदियों तक कलंक लगा रहा। स्वतंत्र भारत में 1952 में यह कानून समाप्त हुआ, लेकिन 1953 का हैबिचुअल ऑफेंडर्स एक्ट इस कलंक को कायम रख गया। आज भी पुलिस और समाज की नजर में बावरिया “चोर-डकैू” ही माने जाते हैं।
बावरिया मुख्य रूप से राजस्थान (अलवर, भरतपुर, जयपुर, दौसा), उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश (चंबल क्षेत्र), हरियाणा, पंजाब, दिल्ली और गुजरात में बसे हैं। हाल ही में शामली में कुख्यात बावरिया गिरोह के सरगना मिथुन का एनकाउंटर हुआ, जिसके सिर पर सवा लाख रुपये का इनाम था।
परंपरागत रूप से बावरिया शिकार, पशुपालन और जंगल से संसाधन जुटाने पर निर्भर थे। ब्रिटिश काल में मजबूरी ने कुछ को छोटे अपराधों की ओर धकेल दिया, लेकिन अधिकांश आज खेती, मजदूरी, ईंट भट्टों और रेहड़ी-पटरी व्यापार से जीवन यापन करते हैं। भाषा के रूप में ‘बागड़ी’ या ‘वागड़ी’ और हिंदी बोलते हैं।
धार्मिक रूप से यह समुदाय मां काली, भैरव, तेजाजी, गोगाजी और रामदेवजी की पूजा करता है। शिक्षा का स्तर बेहद निम्न है, खासकर महिलाओं में। भूमिहीनता, बेरोजगारी और गरीबी आज भी बड़ी समस्याएं हैं।
हाल के वर्षों में बावरिया गिरोह डकैती, हाईवे लूट, एटीएम चोरी, हत्या और बलात्कार जैसी घटनाओं में शामिल पाए गए हैं। इनमें से कई हाई-प्रोफाइल अपराधों में जुड़ाव रहा है, जैसे गुरुग्राम, भुवनेश्वर और पठानकोट मामलों में।
विशेषज्ञ मानते हैं कि बावरिया समुदाय को मुख्यधारा में शामिल करना आवश्यक है। इसके लिए शिक्षा, रोजगार प्रशिक्षण, सरकारी योजनाएं और भूमि वितरण जैसे उपाय जरूरी हैं। कुछ जगहों पर राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत प्रयास किए गए हैं, लेकिन यह अभी पर्याप्त नहीं हैं।