
सतना।
भारतीय रेलवे की पहचान रहे लाल शर्ट पहने, बाजू पर पीतल का बिल्ला लगाए और “साहब… कुली!” की आवाज़ लगाते कुली अब इतिहास बनते जा रहे हैं। सतना रेलवे स्टेशन पर दशकों से यात्रियों का बोझ उठाने वाला कुली समुदाय आज खुद जीवन का बोझ उठाने को मजबूर है। रेलवे के आधुनिकीकरण ने यात्रियों को सुविधा दी, लेकिन कुलियों से उनका रोजगार छीन लिया।
नवभारत टाइम्स की टीम ने जब सतना स्टेशन पर कुलियों की हकीकत जानी, तो उनकी पीड़ा शब्दों से बाहर छलक पड़ी।
ट्रॉली बैग बना रोज़ी-रोटी का सबसे बड़ा दुश्मन
देशभर में जहां करीब 20 हजार लाइसेंसधारी कुली हैं, वहीं मध्यप्रदेश के सतना रेलवे स्टेशन पर केवल 42 कुली बचे हैं, जिनमें एक महिला कुली भी शामिल है। इन कुलियों का कहना है कि चक्के वाले ट्रॉली बैग, एस्केलेटर और लिफ्ट ने उनके हाथों से काम छीन लिया है।
पहले भारी ट्रंक और अटैचियों को उठाना यात्रियों की मजबूरी थी, लेकिन अब बच्चा हो या बुजुर्ग, हर कोई खुद ही ट्रॉली घसीटकर प्लेटफॉर्म से बाहर निकल जाता है। यात्री को अब कुली की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती।
500 से 700 की कमाई अब 100–200 पर सिमटी
आर्थिक हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि जो कुली कभी रोज़ 500 से 700 रुपये कमा लेते थे, आज दिनभर इंतज़ार के बाद मुश्किल से 100 से 200 रुपये ही कमा पा रहे हैं। रेलवे द्वारा 40 किलो वजन उठाने का निर्धारित शुल्क 60 रुपये है, लेकिन समस्या दर की नहीं, काम मिलने की है।
सतना स्टेशन की अधिकांश ट्रेनें प्लेटफॉर्म नंबर 1 पर आती हैं, जहां बाहर निकलने के रास्ते बेहद नज़दीक हैं। यात्री चंद मिनटों में अपना सामान लेकर स्टेशन से बाहर हो जाते हैं।
“रेलवे का विकास, हमारे लिए विनाश”
पिछले 15 वर्षों से कुली का काम कर रहे चंदन यादव कहते हैं,
“हमने अपनी आंखों से रेलवे को बदलते देखा है। स्टेशन सुंदर हो गया, लिफ्ट-एस्केलेटर लग गए। यात्रियों के लिए यह विकास है, लेकिन हमारे लिए विनाश। अब इस पेशे में जान नहीं बची। परिवार चलाना बेहद मुश्किल हो गया है।”
निजीकरण और बैटरी कारों ने छीना सहारा
कुली उमेश कुमार शर्मा का कहना है कि निजीकरण, बैटरी कार और नई सुविधाओं ने कुलियों को पूरी तरह हाशिए पर धकेल दिया है।
“रेलवे यात्रियों की सुविधा बढ़ा रहा है, जो अच्छी बात है, लेकिन हमारे पेट पर लात मार दी गई। अब हमारे लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की गई,” उन्होंने कहा।
लालू यादव का दौर और आज की उम्मीद
कुली आज भी पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव के कार्यकाल को याद करते हैं। वर्ष 2008 में कई कुलियों को ‘गैंगमैन’ बनाकर ग्रुप-डी में समायोजित किया गया था। सतना के कुली अब केंद्र सरकार और आने वाले बजट से उम्मीद लगाए बैठे हैं।
उनकी मांग है कि रेलवे प्रशासन उन्हें भी ग्रुप-डी कर्मचारी का दर्जा दे, ताकि वे सम्मानजनक जीवन जी सकें।
नई पीढ़ी ने इस पेशे से किया किनारा
स्थिति इतनी भयावह है कि कुलियों के बच्चे अब इस पेशे में आने को तैयार नहीं हैं। कमाई न होने के कारण कई कुली यह काम छोड़ना चाहते हैं, लेकिन उम्र, शिक्षा और किसी अन्य हुनर के अभाव में वे मजबूरी में उसी प्लेटफॉर्म पर खड़े रहने को विवश हैं।
सवाल यह है कि क्या रेलवे का विकास उन हाथों को भूल जाएगा, जिन्होंने दशकों तक यात्रियों का बोझ उठाया?
या फिर सरकार इन कुली परिवारों के भविष्य को बचाने के लिए कोई ठोस कदम उठाएगी?