
अपने विवादास्पद बयानों को लेकर एक बार फिर सुर्खियों में आए केंद्रीय मंत्री जीतन राम मांझी के राजनीतिक भविष्य को लेकर चर्चाएं तेज हो गई हैं। राजनीतिक गलियारों में सवाल उठने लगे हैं कि क्या मांझी का बयानों वाला अंदाज़ एक बार फिर उन्हें भारी पड़ सकता है। इतिहास गवाह है कि वर्ष 2014 में यही बड़बोलापन उनकी मुख्यमंत्री की कुर्सी ले डूबा था, जब वे केवल 9 महीने में ही बिहार के मुख्यमंत्री पद से हटने को मजबूर हो गए थे।
नीतीश की पसंद, लेकिन उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे
लोकसभा चुनाव 2014 में हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए 17 मई 2014 को नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया था। इसके बाद जब नए मुख्यमंत्री के नाम पर मंथन हुआ, तो कई दिग्गज नेता दौड़ में थे।
वशिष्ठ नारायण सिंह, विजय कुमार चौधरी, बिजेंद्र प्रसाद यादव, नरेंद्र नारायण यादव और यहां तक कि शरद यादव का नाम भी चर्चा में था। लेकिन नीतीश कुमार ने सबको चौंकाते हुए लोकसभा चुनाव हार चुके जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बना दिया।
यह फैसला सामाजिक संतुलन और राजनीतिक संदेश के लिहाज से अहम माना गया, लेकिन जल्द ही मांझी अपने बयानों के कारण नीतीश कुमार के लिए असहजता का कारण बनने लगे।
कठपुतली नहीं, ‘असल मुख्यमंत्री’ बनने की कोशिश
शुरुआत में मांझी नीतीश कुमार के मार्गदर्शन में काम कर रहे थे, लेकिन कुछ ही समय बाद उन्होंने यह संकेत देना शुरू कर दिया कि वे केवल नाममात्र के मुख्यमंत्री नहीं हैं।
इसके साथ ही एक के बाद एक ऐसे बयान आने लगे, जिन्होंने सरकार की छवि को नुकसान पहुंचाया और सवर्ण वोट बैंक से लेकर प्रशासनिक तंत्र तक को नाराज कर दिया।
विवादित बयान, जिन्होंने कुर्सी हिला दी
12 फरवरी 2015: गांधी मैदान में शिक्षकों की सभा में खुद को कमीशन मिलने की बात स्वीकार कर ली
13 अगस्त 2014: 25 हजार का बिजली बिल 5 हजार की रिश्वत देकर निपटाने का बयान
29 अगस्त 2014: दलित आबादी बढ़ाने के लिए अंतरजातीय विवाह की अपील
31 अगस्त 2014: “मैं भी चूहा खाता था” बयान पर देशभर में हंगामा
3 सितंबर 2014: छोटी-मोटी कालाबाजारी को माफ करने की घोषणा
17 अक्टूबर 2014: लापरवाही करने वाले डॉक्टरों का “हाथ काटने” की धमकी
12 नवंबर 2014: अगड़ी जातियों को विदेश से आया बताने वाला बयान
इन बयानों ने न सिर्फ राजनीतिक विरोधियों को मौका दिया, बल्कि नीतीश कुमार की ‘सुशासन’ की छवि को भी नुकसान पहुंचाया।
9 महीने में खत्म हो गई पारी
जब नीतीश कुमार को यह लगने लगा कि मांझी के बयान चुनावी समीकरण बिगाड़ रहे हैं, तो उन्होंने सीधे हस्तक्षेप किया।
फरवरी 2015 में जीतन राम मांझी को अत्यंत अप्रिय परिस्थितियों में मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। उनकी पारी केवल 9 महीने में ही समाप्त हो गई।
अब फिर वही सवाल
आज एक बार फिर मांझी अपने बयानों को लेकर चर्चा में हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि अब वे केंद्र सरकार में मंत्री हैं। ऐसे में राजनीतिक विश्लेषक यह सवाल उठा रहे हैं कि
क्या इतिहास खुद को दोहराएगा?
क्या बयानों की यही आदत इस बार भी उनकी कुर्सी पर संकट खड़ा करेगी?
राजनीति में स्मृति छोटी होती है, लेकिन बयान लंबे समय तक पीछा करते हैं—और जीतन राम मांझी इसका सबसे बड़ा उदाहरण माने जाते हैं।