
ढाका/नई दिल्ली। बांग्लादेश की राजनीति का एक लंबा और तूफानी अध्याय मंगलवार को समाप्त हो गया। देश की पूर्व प्रधानमंत्री बेगम खालिदा जिया का 80 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। ढाका के एवरकेयर अस्पताल में इलाज के दौरान सुबह करीब छह बजे उन्होंने अंतिम सांस ली। उनके निधन पर पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना ने गहरा शोक जताते हुए कहा कि “देश के राजनीतिक इतिहास में उनका योगदान अहम रहा है।”
खालिदा जिया के निधन के साथ ही बांग्लादेश में दशकों से चली आ रही कुख्यात राजनीतिक प्रतिद्वंदिता — ‘बैटल ऑफ द बेगम्स’ — का औपचारिक अंत हो गया।
निजी दुश्मनी से राष्ट्रीय राजनीति तक
शेख हसीना और खालिदा जिया की प्रतिद्वंदिता महज चुनावी मुकाबले तक सीमित नहीं रही। यह दुश्मनी जेल, मुकदमों, सत्ता के दुरुपयोग और संस्थागत टकराव तक फैलती चली गई। 2018 में शेख हसीना के कार्यकाल के दौरान खालिदा जिया को भ्रष्टाचार के मामलों में जेल भेजा गया था। उनकी पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) लगातार आरोप लगाती रही कि खालिदा जिया की तबीयत गंभीर है और उन्हें इलाज के लिए विदेश जाने की अनुमति दी जाए, लेकिन सरकार ने इसकी इजाजत नहीं दी।
विडंबना यह है कि आज खालिदा जिया के निधन पर शोक जताने वाली शेख हसीना खुद पिछले साल अगस्त से भारत में रह रही हैं। उनकी सरकार का पतन और अब खालिदा जिया का निधन — इन दोनों घटनाओं ने मिलकर बांग्लादेश की सबसे लंबी राजनीतिक जंग का पटाक्षेप कर दिया।
आजादी के बाद की खून-खराबे वाली राजनीति
‘दो बेगमों की लड़ाई’ की जड़ें बांग्लादेश की आजादी के बाद की हिंसक राजनीति में हैं।
शेख हसीना देश के संस्थापक और पहले राष्ट्रपति शेख मुजीबुर रहमान की बेटी हैं। 1975 में एक सैन्य तख्तापलट के दौरान मुजीब और उनके परिवार के अधिकांश सदस्यों की निर्मम हत्या कर दी गई।
इसके बाद सत्ता सैन्य शासकों के हाथों में चली गई।
कुछ वर्षों बाद जियाउर रहमान, खालिदा जिया के पति, सत्ता में आए। उन्होंने बांग्लादेश की राजनीति की दिशा बदलते हुए देश को धर्मनिरपेक्षता से हटाकर इस्लामिक पहचान की ओर मोड़ा। लेकिन 1981 में जियाउर रहमान की भी एक असफल सैन्य तख्तापलट के दौरान हत्या कर दी गई। इसके बाद खालिदा जिया ने BNP की कमान संभाली — और यहीं से दोनों महिलाओं के बीच सत्ता संघर्ष की असली शुरुआत हुई।
सत्ता का झूला और बढ़ता ध्रुवीकरण
1990 और 2000 के दशक में सत्ता बार-बार शेख हसीना और खालिदा जिया के बीच झूलती रही। हर चुनाव के साथ राजनीतिक ध्रुवीकरण और गहराता गया।
संसद का बहिष्कार, देशव्यापी हड़तालें, सड़कों पर हिंसा और सरकारी संस्थाओं का राजनीतिक इस्तेमाल आम बात बन गई। इस टकराव ने न केवल लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर किया, बल्कि देश को लंबे समय तक अस्थिरता में भी डाले रखा।
एक पल की एकता, फिर अंतहीन दुश्मनी
इतिहास का एक अहम मोड़ 1990 में आया, जब दोनों बेगमों ने मिलकर सैन्य तानाशाह हुसैन मोहम्मद इरशाद के खिलाफ आंदोलन किया। छात्रों के नेतृत्व में हुए इस जनांदोलन ने देश को ठप कर दिया और आखिरकार 6 दिसंबर 1990 को इरशाद को इस्तीफा देना पड़ा।
यह दोनों नेताओं की दुर्लभ एकता थी, जिसने सैन्य शासन का अंत किया।
लेकिन इसके बाद बदले की राजनीति और व्यक्तिगत दुश्मनी का दौर शुरू हुआ, जो दशकों तक चलता रहा।
एक युग का अंत
पिछले साल शेख हसीना की सत्ता के पतन और अब बेगम खालिदा जिया के निधन के साथ बांग्लादेश की राजनीति का वह अध्याय बंद हो गया, जिसने देश की दिशा, लोकतंत्र और सत्ता संरचना को गहराई से प्रभावित किया।
‘बैटल ऑफ द बेगम्स’ का अंत केवल दो नेताओं की कहानी का अंत नहीं है, बल्कि यह उस दौर का भी समापन है, जिसने बांग्लादेश को दशकों तक विभाजित और अस्थिर बनाए रखा।