
हैदराबाद/नई दिल्ली: 7 नवंबर 2025 को भारत महान वैज्ञानिक डाॅ. चंद्रशेखर वेंकटरमन रमन की जयंती मना रहा है। समंदर की नीली लहरों को देखकर सवाल करना, उनके बचपन की जिज्ञासा थी, जिसने उन्हें विज्ञान के क्षेत्र में भारत और दुनिया के लिए इतिहास रचने वाला बना दिया।
छोटे से सफर की बड़ी शुरुआत
रमन का जन्म 7 नवंबर 1888 को त्रिची (तिरुचिरापल्ली), मद्रास प्रेसिडेंसी में हुआ। बचपन से ही उनकी बुद्धिमत्ता और विज्ञान में रुचि दिखाई दी। मात्र 11 साल की उम्र में 10वीं पास कर वे प्रथम स्थान पर रहे। 1903 में 14 साल की उम्र में उन्हें हौस्टल भेजा गया, जहां उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज, मद्रास से ग्रेजुएशन पूरा किया। 1904 में उन्हें फिजिक्स और इंग्लिश में मेडल भी मिला।
पहली रिसर्च और अंतरराष्ट्रीय पहचान
18 साल की उम्र में रमन का पहला रिसर्च पेपर Philosophical Magazine में प्रकाशित हुआ। इसके बाद ब्रिटिश वैज्ञानिक लॉर्ड रेले ने उन्हें लेटर लिखकर ‘Professor Raman’ संबोधित किया, यह जानते हुए कि वे केवल 18 साल के छात्र हैं। 1907 में उन्होंने फिजिक्स में मास्टर्स डिग्री प्राप्त की।
समुद्र की नीली लहरों से मिली प्रेरणा
1921 में ब्रिटेन की यात्रा के दौरान समुद्र के नीले रंग को देखकर रमन ने विचार किया कि क्या यह केवल आसमान के प्रतिबिंब की वजह से है। भारत लौटकर उन्होंने प्रयोगों के माध्यम से निष्कर्ष निकाला कि समुद्र का पानी सूर्य के प्रकाश को स्वयं विभाजित करता है, और यही कारण है कि समुद्र नीला दिखाई देता है।
रमन प्रभाव: प्रकाश की अनोखी खोज
रमन ने ठोस, द्रव और गैस तीनों अवस्थाओं में प्रकाश के बिखराव (Scattering of Light) पर शोध किया। इसी शोध से उन्होंने वह खोज की जिसे आज रमन इफेक्ट (Raman Effect) कहा जाता है। यह सिद्धांत बताता है कि जब प्रकाश किसी पारदर्शी पदार्थ से गुजरता है, तो उसकी तरंगदैर्ध्य (Wavelength) बदल जाती है और कुछ प्रकाश दूसरी दिशा में बिखर जाता है।
नोबेल पुरस्कार और वैज्ञानिक विरासत
रमन को 1930 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला। वे इस उपलब्धि को प्राप्त करने वाले पहले भारतीय वैज्ञानिक बने। आज भी रमन प्रभाव का प्रयोग रासायनिक प्रयोगशालाओं में पदार्थों की पहचान के लिए किया जाता है। उन्हें अनेक मानद डॉक्टरेट उपाधियाँ और सम्मान मिले। 1924 में उन्हें रॉयल सोसाइटी का फेलो चुना गया और 1929 में नाइट की उपाधि से नवाजा गया। 21 नवंबर 1970 को उनका निधन हुआ, लेकिन उनके योगदान ने भारत को विश्व मानचित्र पर वैज्ञानिक दृष्टि से प्रतिष्ठित किया।
रमन की यात्रा सिर्फ एक खोज नहीं, बल्कि भारतीय विज्ञान की विश्व में पहचान का प्रतीक बनी।