
ढाका/नई दिल्ली: बांग्लादेश की अंतरिम सरकार द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना के प्रत्यर्पण की मांग ने भारत–बांग्लादेश संबंधों में नई बहस छेड़ दी है। इंटरनेशनल क्राइम्स ट्रिब्यूनल (ICT) द्वारा ‘मानवता के खिलाफ अपराध’ के आरोप में हसीना को मौत की सजा सुनाए जाने के बाद अंतरिम सरकार के सलाहकार मोहम्मद यूनुस ने भारत से उन्हें तुरंत सौंपने की मांग की है।
लेकिन सवाल यह है—क्या भारत, 2013 की प्रत्यर्पण संधि के आधार पर शेख हसीना को ढाका के हवाले करने के लिए बाध्य है?
संधि कानूनी रूप से क्या कहती है?
भारत और बांग्लादेश के बीच 2013 में हुई प्रत्यर्पण संधि मुख्य रूप से 1971 के युद्ध अपराधों और सीमा पार सक्रिय उग्रवादियों के मामले को ध्यान में रखकर बनाई गई थी। दिलचस्प रूप से, शेख हसीना स्वयं इस संधि के हस्ताक्षरकर्ताओं में थीं। आज वही संधि उनके खिलाफ इस्तेमाल की जा रही है, जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी।
ढाका ने ICT द्वारा जारी वारंट के आधार पर अनुरोध भेजा है, जो प्रक्रिया के अनुसार वैध है। लेकिन संधि का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है “डुअल क्रिमिनैलिटी”—अपराध दोनों देशों के कानून में दंडनीय होना चाहिए।
भारत में ‘क्राइम्स अगेंस्ट ह्यूमैनिटी’ जैसा घरेलू कानून मौजूद नहीं है, इसलिए दिल्ली के पास इसे प्रत्यर्पण योग्य अपराध नहीं मानने का मजबूत आधार है।
ICT की वैधता पर भी उठ रहे सवाल
भारत के वरिष्ठ रणनीतिकार और डिप्लोमेट प्रो. एसडी मुनि के अनुसार, दिल्ली के पास न केवल कानूनी, बल्कि नैतिक रूप से भी प्रत्यर्पण से इनकार करने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं।
उनके शब्दों में—
“ICT स्वयं अंतरराष्ट्रीय मानकों पर वैधता के संकट से जूझ रहा है। हसीना पर हिंसा भड़काने के आरोप साबित नहीं हुए हैं और न्यायिक प्रक्रिया संदिग्ध है। ऐसे में भारत किसी भी स्थिति में शेख हसीना को सौंप नहीं सकता।”
क्या मामला ‘राजनीतिक अपराध’ की श्रेणी में आता है?
संधि का अनुच्छेद 6(1) भारत को महत्वपूर्ण छूट देता है—यदि अपराध ‘राजनीतिक प्रकृति’ का हो, तो प्रत्यर्पण से इनकार किया जा सकता है।
शेख हसीना के खिलाफ आंदोलन राजनीतिक था, उनकी सरकार का पतन राजनीतिक अस्थिरता का परिणाम था, और मौजूदा अंतरिम सरकार के सलाहकार मोहम्मद यूनुस उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी हैं।
अमेरिकी थिंक टैंक विलसन सेंटर के विश्लेषक माइकल कुलेगमैन भी मानते हैं कि मामला राजनीतिक प्रतिशोध की गंध देता है।
इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है अनुच्छेद 8(3), जिसमें साफ लिखा है कि यदि प्रत्यर्पण ‘गुड फेथ’ या न्याय के हित में न हो, तो भारत इसे रोक सकता है। मौजूदा परिस्थितियों में यह भारत के लिए सबसे मजबूत आधार बनता है।
जियो-पॉलिटिकल समीकरण भी भारत के पक्ष में
एसडी मुनि का तर्क है कि शेख हसीना को सौंपना केवल कानूनी ही नहीं, बल्कि सामरिक दृष्टि से भी भारत के लिए खतरनाक होगा।
उनके अनुसार—
“यदि हसीना को सौंप दिया गया, तो बांग्लादेश में अवामी लीग समाप्त हो जाएगी, इस्लामिक कट्टरपंथी ताकतें सत्ता में आएंगी और चीन–पाकिस्तान का दबदबा बढ़ जाएगा। यह भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सीधा खतरा है।”
क्या भारत को बाध्य किया जा सकता है?
संक्षिप्त उत्तर—नहीं।
भारत न तो संधि के अनुसार बाध्य है, न ही किसी अंतरराष्ट्रीय अदालत में ऐसे मामलों का त्वरित समाधान संभव है।
प्रत्यर्पण देना—या न देना—पूरी तरह भारत सरकार के विवेक पर निर्भर करता है।
इसलिए यह साफ है कि मोहम्मद यूनुस और बांग्लादेश की अंतरिम सरकार भले ही दबाव बनाने की कोशिश करें, भारत किसी भी परिस्थिति में शेख हसीना को ढाका के हवाले नहीं करेगा।