Monday, November 3

ग़ज़लांजलि साहित्यिक संस्था की काव्य गोष्ठी में बहा भावनाओं का सैलाब

“बात जो दिल से निकलती है…” ने बांधा समां
उज्जैन। रूपांतरण दशहरा मैदान में ग़ज़लांजलि साहित्यिक संस्था द्वारा आयोजित काव्य गोष्ठी में शब्दों और भावनाओं का सुंदर संगम देखने को मिला। दीप प्रज्ज्वलन और सामूहिक सरस्वती वंदना के साथ कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. श्रीकृष्ण जोशी ने की।

प्रमुख ग़ज़लकार डॉ. अखिलेश चौरे ने अपनी प्रभावशाली प्रस्तुति “ग़ज़ल बात दिल से निकलती है असर रखती है, निकल के दिल से ये दिल का ही सफ़र करती है…” से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया।

विनोद काबरा ने अपनी कविता “वोट समाज के समत्व, राष्ट्रधर्म, स्वराज है, वोट राष्ट्र रूपिणी पुनीत है, पवित्र है…” के माध्यम से लोकतंत्र का सार प्रस्तुत किया।
रामदास समर्थ ने जीवन दर्शन पर आधारित रचना “है सरल जीएना ये जीवन कठिन, आ तू सिर्फ जी ले इंसान बन के…” सुनाकर मन को छू लिया।

सत्यनारायण सत्येन्द्र ने प्रकृति-सौंदर्य से सजी कविता “सुबह सुहानी, साँझ सुरमई, लुका छिपी खेल रही, सूरज की किरणें हरियाली फैली चहुँ ओर…” पढ़ी।
वहीं डॉ. विजय सुखवानी ने अपनी ग़ज़ल “किसी पराई शय पर नज़र नहीं रखी, दौलत गैर की अपने घर नहीं रखी…” से गूंज भर दी।

ग़ज़ल के रंग में डूबे विजय सिंह गहलोत साकित ने “तन्हाई मुक़द्दर है तनहा सफ़र रहेगा, बस दर्द सहारा है ग़म राहबर रहेगा…” और “पलकों से कभी जो छलका भी नहीं है, वो दर्द समझ लीजे हल्का नहीं है…” जैसी ग़ज़लों से दिलों को छू लिया।

कार्यक्रम के अंत में अध्यक्ष डॉ. श्रीकृष्ण जोशी ने अपने संस्मरण साझा करते हुए कहा कि साहित्य समाज की आत्मा है, जो हर दौर में मनुष्य को संवेदनशील बनाए रखती है।

यह काव्य गोष्ठी न केवल शब्दों का उत्सव रही, बल्कि मन और विचारों को जोड़ने वाला एक सजीव अनुभव भी बनी।

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