
संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित इस थीम का अर्थ केवल औपचारिक संदेश नहीं है, बल्कि यह आधुनिक समाज के सामने खड़ी वास्तविकता का सच्चा दर्पण है। किसी भी राष्ट्र की प्रगति तभी संतुलित, सच्ची और पूर्ण मानी जा सकती है—जब दिव्यांगजन सम्मान, समान अवसर और गरिमा के साथ समाज के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी सक्रिय भागीदारी निभा सकें।
भारत में दिव्यांगजन: बदलता दृष्टिकोण, बढ़ते अवसर
प्रधानमंत्री द्वारा ‘विकलांग’ शब्द के स्थान पर ‘दिव्यांग’ शब्द का प्रयोग केवल भाषाई परिवर्तन नहीं, बल्कि राष्ट्रव्यापी सोच को सकारात्मक दिशा देने का प्रयास है।
जनगणना 2011 के अनुसार देश में 2.6 करोड़ दिव्यांगजन हैं। दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016 में 21 दिव्यांगताओं को शामिल किए जाने के बाद यह संख्या वास्तविक रूप में इससे कहीं अधिक है।
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने 1999 के पुराने अधिनियम को संशोधित कर 2016 में नया, सशक्त और व्यापक अधिनियम लागू किया। इसने दिव्यांगजनों के अधिकारों को कानूनी संरक्षण, प्रभावी सुरक्षा और गरिमापूर्ण जीवन का आधार प्रदान किया।
इसी मंत्रालय के अधीन दिव्यांगजन सशक्तिकरण विभाग अनेक योजनाओं के माध्यम से हाशिये पर रहे दिव्यांगजनों को शिक्षा, रोजगार, पुनर्वास और आत्मनिर्भरता की दिशा में तेजी से आगे बढ़ा रहा है।
परंतु यह प्रगति तभी सार्थक होगी—जब विकास यात्रा का हर कदम दिव्यांगजनों को साथ लेकर चले।
समावेशन: राष्ट्र का दायित्व, समाज की मजबूती
दिव्यांगजन कमजोरी नहीं—राष्ट्र की अदृश्य और महत्वपूर्ण शक्ति हैं।
समावेशन कोई विकल्प नहीं, बल्कि राष्ट्रीय कर्तव्य है। इसे तभी पूर्ण माना जाएगा जब—
- हमारी इमारतें, परिवहन और सार्वजनिक स्थान सुगम्य और बाधारहित हों।
- शिक्षा व्यवस्था समावेशी, अनुकूल और सहायक हो।
- हर क्षेत्र में समान अधिकार और समान अवसर उपलब्ध हों।
- रोजगार, व्यापार और व्यवसाय के श्रेष्ठ अवसर दिव्यांगजनों की पहुंच में हों।
जब दिव्यांगजन आत्मनिर्भर होकर समाज की मुख्यधारा में शामिल होंगे, तभी सशक्त और समावेशी भारत की नींव मजबूत होगी। एक राष्ट्र तभी महान है—जब वह हर नागरिक को समान अवसर प्रदान करे।
यदि भारत को वास्तव में संवेदनशील, न्यायपूर्ण और प्रगतिशील बनाना है, तो दिव्यांग-समावेशन को केवल सामाजिक पहल नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में अपनाना होगा।
समाज का कर्तव्य: सोच बदलें, दृष्टि बदलें
अपने 25 वर्षों के कार्यानुभव में मैंने प्रत्यक्ष देखा है कि—
- अवसर मिलने पर दिव्यांगजन असंभव को भी संभव कर दिखाते हैं।
- यह किसी की दया नहीं, बल्कि उनकी मेहनत, क्षमता और संघर्ष की विजय है।
- सबसे बड़ी आवश्यकता है—सोच में परिवर्तन।
- दिव्यांगजन दया के पात्र नहीं, वे अधिकारों के हकदार, अवसरों के योग्य और सम्मान के अधिकारी हैं।
यह दिवस हमें पुनः स्मरण कराता है कि—
“दिव्यांगजन समाज का बोझ नहीं, राष्ट्र की शक्ति हैं।”
यह शक्ति तभी प्रकट होगी, जब समावेशन हमारी सोच, नीति और व्यवहार—तीनों में गहराई से स्थापित हो।
दिव्यांग सशक्तिकरण ही सक्षम, समर्थ और आत्मनिर्भर भारत के निर्माण का आधार है।
लेखक: जगदीश प्रसाद शर्मा, उज्जैन
पद और सम्मान: नैदानिक पुनर्वास मनोवैज्ञानिक; मध्य प्रदेश राज्य स्तरीय महर्षि दधीचि पुरस्कार से सम्मानित; भारतीय पुनर्वास परिषद एवं सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय, भारत शासन तथा बाल कल्याण समिति के पूर्व सदस्य