
नई दिल्ली। मद्रास हाईकोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस जी. आर. स्वामीनाथन के एक फैसले के बाद उनके खिलाफ संसद में महाभियोग प्रस्ताव लाने की पहल ने देश की न्यायिक और राजनीतिक व्यवस्था को झकझोर दिया है। विपक्षी दलों द्वारा उठाया गया यह कदम न केवल अभूतपूर्व है, बल्कि इसे न्यायपालिका पर राजनीतिक और वैचारिक दबाव बनाने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। इस पूरे घटनाक्रम के विरोध में देश के 56 पूर्व न्यायाधीशों ने एक खुला पत्र जारी कर इसे लोकतंत्र के लिए खतरनाक करार दिया है।
तीन अहम पहलू
इस पूरे विवाद के तीन प्रमुख पहलू सामने आते हैं—
पहला, जस्टिस स्वामीनाथन द्वारा दिया गया फैसला और उसकी पृष्ठभूमि।
दूसरा, तिरुप्परनकुंद्रम पहाड़ी से जुड़ा ऐतिहासिक और धार्मिक विवाद।
तीसरा, महाभियोग प्रस्ताव के पीछे की राजनीतिक सोच और विचारधारा।
न्यायमूर्ति स्वामीनाथन ने 1 दिसंबर को तिरुप्परनकुंद्रम पहाड़ी पर स्थित अरुलमिघु सुब्रमण्यम स्वामी मंदिर से जुड़ी पुरानी परंपरा के अनुसार दीप जलाने का आदेश दिया था। प्रशासन द्वारा आदेश का पालन न किए जाने पर उन्होंने 4 दिसंबर को कड़े शब्दों में दूसरा आदेश जारी किया।
सदियों पुरानी परंपरा
तिरुप्परनकुंद्रम पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर में तमिल माह कार्तिगई (नवंबर-दिसंबर) में कार्तिगई दीपम पर्व मनाने की परंपरा सदियों पुरानी है। इस अवसर पर पत्थर के स्तंभ (दीपथून) पर दीपक जलाया जाता है। इस वर्ष 3 दिसंबर को यह अनुष्ठान होना था, लेकिन पुलिस द्वारा श्रद्धालुओं को रोके जाने से विवाद गहरा गया और मामला अदालत तक पहुंचा।
मंदिर बनाम दरगाह विवाद
यह पहाड़ी मदुरै से करीब 10 किलोमीटर दूर स्थित है और हिंदू मान्यताओं में भगवान मुरुगन (कार्तिकेय) के छह प्रमुख निवास स्थलों में से एक मानी जाती है। विवाद की जड़ पहाड़ी के ऊपरी हिस्से में स्थित सिकंदर वधुशाह की 17वीं सदी की दरगाह है। मंदिर समर्थकों का कहना है कि पूरी पहाड़ी शिवलिंग स्वरूप है और मंदिर का उल्लेख छठी शताब्दी तक मिलता है, जबकि दरगाह का निर्माण बाद में हुआ।
राजनीति और नाम बदलने की मांग
विवाद तब और गहरा गया जब कुछ मुस्लिम संगठनों ने पहाड़ी का नाम ‘सिकंदर मलाई’ करने की मांग को लेकर आंदोलन शुरू किया। इसके बाद प्रशासन ने तनाव की आशंका में मंदिर की नियमित पूजा को छोड़ अन्य धार्मिक गतिविधियों पर लगभग रोक लगा दी।
क्या महाभियोग ही रास्ता था?
विशेषज्ञों का सवाल है कि यदि तमिलनाडु सरकार या कोई राजनीतिक दल न्यायालय के फैसले से असहमत था, तो उसके पास बड़ी पीठ या सुप्रीम कोर्ट जाने जैसे संवैधानिक विकल्प खुले थे। इन सभी रास्तों को छोड़कर सीधे महाभियोग की बात करना इस आशंका को जन्म देता है कि कहीं इसका उद्देश्य भविष्य में न्यायालय को ऐसे फैसले देने से डराना तो नहीं।
लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत
महाभियोग की प्रक्रिया न्यायपालिका की ईमानदारी और गरिमा की रक्षा के लिए है, न कि किसी फैसले से असहमति के चलते जज पर दबाव बनाने के लिए। इसे राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना लोकतंत्र और संविधान—दोनों के लिए गंभीर खतरा है।
विश्लेषकों का मानना है कि डीएमके की अपनी वैचारिक राजनीति हो सकती है, लेकिन कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस जैसे दलों का इस मुद्दे पर उसका समर्थन करना भविष्य में इन दलों के लिए भी राजनीतिक रूप से महंगा साबित हो सकता है।
निष्कर्षतः, यह मामला सिर्फ एक मंदिर या एक न्यायाधीश तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सवाल खड़ा करता है कि क्या लोकतंत्र में न्यायपालिका स्वतंत्र रह पाएगी या राजनीतिक दबावों के साये में काम करने को मजबूर होगी।