
नई दिल्ली।
भारतीय मुद्रा बाजार में मंगलवार को एक ऐतिहासिक मोड़ देखने को मिला, जब रुपया पहली बार अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 91 के स्तर को पार कर गया। रुपये की इस तेज गिरावट ने न केवल निवेशकों की चिंता बढ़ा दी है, बल्कि यह सवाल भी खड़ा कर दिया है कि आखिर सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) इस गिरावट को थामने के लिए सक्रिय दखल क्यों नहीं दे रहे हैं। क्या यह एक सोची-समझी आर्थिक रणनीति है या फिर वैश्विक दबावों के आगे मजबूरी?
क्यों फिसला रुपया रिकॉर्ड निचले स्तर पर
विशेषज्ञों के मुताबिक, रुपये की कमजोरी के पीछे भारत-अमेरिका व्यापार समझौते में देरी और विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (FPI) की लगातार बिकवाली प्रमुख कारण हैं। विदेशी निवेशकों के भारतीय बाजार से पूंजी निकालने से डॉलर की मांग बढ़ी, जिससे रुपये पर दबाव गहराता चला गया।
एचडीएफसी सिक्योरिटीज के रिसर्च एनालिस्ट दिलीप परमार का कहना है कि बेहतर व्यापार संतुलन के आंकड़े आने के बावजूद रुपये को कोई ठोस सहारा नहीं मिला। उन्होंने बताया कि इस साल अब तक रुपया करीब 6 प्रतिशत तक गिर चुका है, जिससे यह एशियाई मुद्राओं में सबसे कमजोर प्रदर्शन करने वाली करेंसी बन गई है।
सरकार की ‘सोची-समझी रणनीति’?
इंडिट्रेड कैपिटल के ग्रुप चेयरमैन सुदीप बंदोपाध्याय का मानना है कि रुपये की गिरावट में सरकार और आरबीआई की निष्क्रियता दरअसल एक रणनीतिक फैसला हो सकता है। उनका कहना है कि अमेरिका द्वारा लगाए गए भारी टैरिफ के बीच सरकार चाहती है कि भारतीय निर्यात वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धी बना रहे।
उन्होंने कहा, “सामान्य तौर पर सालाना 2-3 प्रतिशत की गिरावट स्वीकार्य मानी जाती है, लेकिन मौजूदा हालात में इससे ज्यादा कमजोरी को भी मंजूरी दी जा रही है। इससे भारतीय उत्पाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में सस्ते पड़ते हैं और निर्यात को बढ़ावा मिलता है।”
10 दिन में 90 से 91 तक पहुंचा रुपया
मंगलवार सुबह के कारोबार में रुपया 91.14 प्रति डॉलर तक फिसल गया, जो पिछले बंद भाव से करीब 36 पैसे की गिरावट थी। बीते 10 कारोबारी सत्रों में रुपया 90 के स्तर से नीचे लुढ़कते हुए 91 के पार पहुंच गया है। केवल पिछले पांच सत्रों में ही इसमें करीब 1 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई।
कमजोर रुपया, मजबूत निर्यात का गणित
रुपये की गिरावट और निर्यात के बीच सीधा संबंध माना जाता है। कमजोर रुपया भारतीय निर्यातकों के लिए फायदेमंद साबित होता है, क्योंकि इससे भारतीय सामान विदेशी खरीदारों के लिए सस्ते हो जाते हैं।
नवंबर में, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ के बावजूद भारत का निर्यात 19.37 प्रतिशत बढ़कर 38.13 अरब डॉलर तक पहुंच गया। इसका असर यह हुआ कि देश का व्यापार घाटा घटकर पांच महीने के निचले स्तर 24.53 अरब डॉलर पर आ गया।
उदाहरण से समझें फायदा
अगर पहले 1 डॉलर के बदले 80 रुपये मिलते थे, तो अब लगभग 90 रुपये मिल रहे हैं। यानी विदेशी खरीदार उतनी ही डॉलर राशि में ज्यादा भारतीय उत्पाद खरीद सकते हैं। इससे भारतीय निर्यातकों की मांग और मुनाफा दोनों बढ़ते हैं और देश की निर्यात क्षमता को बल मिलता है।
आगे क्या?
हालांकि कमजोर रुपया निर्यातकों के लिए राहत लेकर आता है, लेकिन आयात महंगा होने से महंगाई का खतरा भी बढ़ता है। ऐसे में सवाल यह है कि सरकार और आरबीआई रुपये को कितनी गिरावट तक जाने देंगे। फिलहाल इतना तय है कि रुपये की चाल आने वाले दिनों में न केवल बाजार की दिशा तय करेगी, बल्कि आम आदमी की जेब पर भी इसका सीधा असर पड़ेगा।