
नई दिल्ली।
देश में तेजी से बढ़ती ‘गिग इकोनॉमी’ के चमकदार दावों के पीछे छिपा कड़वा सच अब सामने आने लगा है। आम आदमी पार्टी (आप) के राज्यसभा सांसद राघव चड्ढा ने गिग वर्कर्स के शोषण को लेकर गंभीर चिंता जताई है। उन्होंने एक डिलीवरी एजेंट का उदाहरण साझा करते हुए बताया कि कैसे 15 घंटे की कड़ी मेहनत और दिनभर की दौड़ के बाद भी एक वर्कर को महज 762 रुपये की कमाई होती है।
राघव चड्ढा ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘एक्स’ पर लिखा, “यह गिग इकोनॉमी की सफलता की कहानी नहीं, बल्कि ऐप्स और एल्गोरिदम के पीछे छिपा हुआ प्रणालीगत शोषण है।” उन्होंने कहा कि भारत कम वेतन, अत्यधिक काम के बोझ और असुरक्षित रोजगार के सहारे डिजिटल अर्थव्यवस्था का निर्माण नहीं कर सकता।
15 घंटे काम, प्रति घंटा कमाई सिर्फ 52 रुपये
सांसद द्वारा साझा किए गए स्क्रीनशॉट के अनुसार, ब्लिंकिट के एक डिलीवरी एजेंट ने 14 घंटे 39 मिनट तक काम कर 28 ऑर्डर पूरे किए। इस दौरान उसे ऑर्डर से 690.57 रुपये और इंसेंटिव के रूप में केवल 72 रुपये मिले। यानी कुल कमाई 762.57 रुपये रही, जो प्रति घंटे औसतन सिर्फ 52 रुपये बैठती है।
चड्ढा ने कहा कि गिग वर्कर्स को न तो न्यूनतम वेतन की गारंटी है, न नौकरी की सुरक्षा और न ही सामाजिक सम्मान। उन्होंने इसे लाखों मेहनतकश लोगों की रोजमर्रा की हकीकत बताया और जोर देकर कहा कि उचित मजदूरी, मानवीय काम के घंटे और सामाजिक सुरक्षा किसी भी हाल में समझौते का विषय नहीं हो सकते।
112 किलोमीटर की दौड़, असली कमाई 200 रुपये भी नहीं
इस पोस्ट पर प्रतिक्रिया देते हुए एक निवेशक ने पूरी कमाई का हिसाब सामने रखा। उसके अनुसार, यदि प्रति ऑर्डर औसतन 4 किलोमीटर की दूरी मानी जाए तो डिलीवरी एजेंट ने दिनभर में करीब 112 किलोमीटर की यात्रा की। 40 किलोमीटर प्रति लीटर के माइलेज से भी लगभग 300 रुपये सिर्फ ईंधन में खर्च हो गए।
इसके अलावा भोजन और अन्य दैनिक जरूरतों पर 150 से 300 रुपये का खर्च जोड़ने पर, दिन के अंत में उस वर्कर की वास्तविक कमाई महज 150 से 200 रुपये रह जाती है।
निवेशक ने चेतावनी दी कि भारी ट्रैफिक, मानसिक तनाव और लंबे काम के घंटे आगे चलकर इन वर्कर्स की सेहत पर भारी पड़ेंगे, जिसका खर्च उन्हें भविष्य में अपनी जेब से चुकाना होगा। उन्होंने डिलीवरी वर्कर्स के योगदान को “शानदार” बताते हुए कहा कि वे इससे कहीं अधिक कमाई और सम्मान के हकदार हैं।
लाखों गिग वर्कर्स की यही सच्चाई
यह मामला सिर्फ एक डिलीवरी एजेंट की कहानी नहीं है, बल्कि उन लाखों गिग वर्कर्स की सच्चाई है जो देश की डिजिटल अर्थव्यवस्था की रीढ़ बने हुए हैं। घंटों मेहनत, जोखिम भरा काम और अनिश्चित आमदनी—यही उनकी रोजमर्रा की जिंदगी है।
‘गिग इकोनॉमी’ भले ही आजादी और लचीलापन देने का दावा करती हो, लेकिन इसके साथ नौकरी की सुरक्षा, स्थिर आय और सामाजिक संरक्षण की भारी कमी भी जुड़ी है। यह घटना गिग इकोनॉमी प्लेटफॉर्म्स की जिम्मेदारी और सरकार द्वारा ठोस नीतिगत हस्तक्षेप की जरूरत पर गंभीर सवाल खड़े करती है।