
भारत दुनिया के सबसे तेज़ी से बढ़ते स्टील बाजारों में से एक है। सरकार का लक्ष्य है कि 2030 तक देश की स्टील उत्पादन क्षमता 300 मिलियन टन प्रति वर्ष तक पहुंच जाए। लेकिन नई रिपोर्ट के मुताबिक, इस बढ़त की नींव BF-BOF प्लांटों पर आधारित है, जिनके संचालन के लिए भारत को लगभग 90 प्रतिशत मेटलर्जिकल कोयला (मेट कोल) ऑस्ट्रेलिया से आयात करना पड़ता है।
ऑस्ट्रेलिया की सप्लाई पर बढ़ता जोखिम
IEEFA की रिपोर्ट के अनुसार, ऑस्ट्रेलिया मेट कोल का सबसे बड़ा एक्सपोर्टर है, लेकिन उसकी खदानें कानूनी चुनौतियों, उच्च लागत, फंडिंग में कमी, क्लाइमेट जोखिम और नए प्रोजेक्ट्स की मंजूरी में देरी जैसी समस्याओं का सामना कर रही हैं। भविष्य में सप्लाई में कमी होने पर भारत में स्टील के दाम बढ़ सकते हैं और BF-BOF प्लांटों की बढ़ती मांग को पूरा करना मुश्किल हो सकता है।
IEEFA के साइमोन निकोलस का कहना है,
“ऑस्ट्रेलिया 2050 नेट जीरो की दिशा में बढ़ रहा है। वहां कोयला परियोजनाओं पर कानूनी और पर्यावरणीय दबाव बढ़ रहे हैं। भारत की अत्यधिक निर्भरता भविष्य में खतरा पैदा कर सकती है।”
भारत के विकल्प
रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि भारत स्क्रैप आधारित इलेक्ट्रिक आर्क फर्नेस (EAF), ग्रीन हाइड्रोजन आधारित स्टील और लो कार्बन टेक्नोलॉजी को अपनाकर मेट कोल पर निर्भरता कम कर सकता है। भारत दुनिया के सबसे सस्ते ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादक बनने की क्षमता रखता है, लेकिन इसका इस्तेमाल घरेलू स्टील उद्योग में होना चाहिए।
बड़ी तस्वीर
भारत की स्टील इंडस्ट्री 2070 नेट जीरो लक्ष्य की ओर बढ़ रही है, लेकिन उसकी नींव आयातित कोयले पर टिकी है। अगर मेट कोल सप्लाई बाधित हुई, तो उत्पादन लागत बढ़ेगी और सेक्टर में अस्थिरता आएगी। रिपोर्ट साफ चेतावनी देती है कि ऊर्जा सुरक्षा और स्टील सेक्टर के भविष्य के लिए नई दिशा अपनाना जरूरी है।
संक्षेप में:
- भारत की स्टील बढ़ती मांग पर ऑस्ट्रेलियाई कोयले की निर्भरता।
- ऑस्ट्रेलिया में कानूनी, आर्थिक और पर्यावरणीय दबाव बढ़ रहे हैं।
- भविष्य में सप्लाई बाधित होने पर कीमतों में उछाल संभव।
- समाधान: स्क्रैप आधारित EAF, ग्रीन हाइड्रोजन और घरेलू तकनीक।
- समय कम, कार्रवाई आज ही जरूरी।
