
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक मामलों में चार्जशीट दायर करने और आरोप तय करने की जल्दबाज़ी पर गंभीर आपत्ति जताई है। शीर्ष अदालत ने साफ कहा कि पुलिस और निचली अदालतें फ़िल्टर की तरह काम करें और वही मामले अदालत तक पहुंचें जिनमें सबूत मजबूत हों तथा सजा की वास्तविक संभावना हो। कोर्ट ने चेताया कि प्रथम दृष्टया मामला न होने के बावजूद मुकदमे चलाने की प्रवृत्ति न्याय व्यवस्था पर अनावश्यक बोझ डाल रही है।
सिविल विवाद को बनाया आपराधिक केस, सुप्रीम कोर्ट ने किया रद्द
जस्टिस एन.के. सिंह और जस्टिस मनमोहन की बेंच कोलकाता की एक संपत्ति संबंधी सिविल लड़ाई से जुड़े आपराधिक मामले पर सुनवाई कर रही थी। शिकायतकर्ता ने न्यायिक बयान देने से इनकार कर दिया था, फिर भी पुलिस ने केस दर्ज कर अदालत तक पहुंचा दिया।
बेंच ने कड़ा रुख अपनाते हुए कहा कि जब कोई मामला मूल रूप से सिविल विवाद का हो, तो उसे आपराधिक रंग देना न्याय प्रक्रिया का दुरुपयोग है। अदालत ने कहा कि इस केस में कानूनी रूप से मान्य ऐसा कोई सबूत नहीं था, जिससे ‘मजबूत शक’ पैदा हो सके कि अपराध हुआ है।
“हर विवाद को अपराध का रूप देना गलत”
अदालत ने स्पष्ट किया कि सरकार को नागरिकों पर तभी मुकदमे चलाने चाहिए जब दोष सिद्ध होने की उचित संभावना हो। “बिना ठोस उम्मीद के किसी को न्यायिक प्रक्रिया में घसीटना न केवल गलत है बल्कि यह अपराध-न्याय प्रणाली की दक्षता और विश्वसनीयता को भी चोट पहुँचाता है,” बेंच ने कहा।
पुलिस और अदालतों के लिए सख्त दिशा-निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने दो-टूक निर्देश जारी किए—
- चार्जशीट तभी दाखिल हो, जब जांच अधिकारी को मिले सबूत सजा की वास्तविक उम्मीद दिखाते हों।
- निचली अदालतें आरोप तय करते समय प्रारंभिक फ़िल्टर की भूमिका निभाएं—कमजोर और गैर-ज़रूरी मामलों को यहीं रोक दें।
- सिविल विवादों को आपराधिक मुकदमों का रूप देने की प्रवृत्ति पर तुरंत रोक लगाई जाए।
- न्याय व्यवस्था को बोझिल बनाने वाली कार्रवाई से बचें, ताकि गंभीर अपराधों वाले मामलों में जल्दी न्याय मिल सके।
“सिस्टम का समय बर्बाद करना बंद हो”
कोर्ट ने कहा कि आरोप तय करने के समय यह ज़रूरी नहीं कि सजा निश्चित दिखे, लेकिन इतना ज़रूर होना चाहिए कि मामला मुकदमे लायक हो। यदि ऐसा नहीं है तो केस को आगे बढ़ाना न्याय और संसाधनों—दोनों की बर्बादी है।