Friday, December 26

क्या उल्टी दिशा में घूम रहा है भारतीय खेलों का पहिया?

 

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देश में खेलों को नई ऊंचाइयों तक ले जाने के दावों के बीच जमीनी हकीकत चिंता बढ़ाने वाली है। जयपुर के सवाई मानसिंह स्टेडियम में हाल ही में आयोजित खेलो इंडिया यूनिवर्सिटी गेम्स के दृश्य भारतीय खेलों के भविष्य पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं।

 

एथलेटिक्स ट्रैक पर वह तस्वीर बेहद चौंकाने वाली थी, जब महिलाओं की 400 मीटर दौड़ में कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी की मनीषा अकेले दौड़ती नजर आईं। इस इवेंट में नामांकन कराने वाले पांच खिलाड़ियों में से चार ने अंतिम क्षणों में प्रतियोगिता से अपना नाम वापस ले लिया। पुरुषों की 400 मीटर बाधा दौड़ में भी यही हाल रहा, जहां गुजरात स्पोर्ट्स यूनिवर्सिटी के रुचित मोर बिना किसी प्रतिद्वंद्वी के दौड़ते दिखे। कुश्ती में भी कई वर्गों में दो या तीन प्रतियोगी ही मैदान में उतरे।

 

खतरे की घंटी है यह स्थिति

 

यह वही खेलो इंडिया मंच है, जिस पर सरकार हर साल करोड़ों रुपये खर्च कर रही है ताकि युवाओं को अंतरराष्ट्रीय स्तर के लिए तैयार किया जा सके। उद्देश्य सराहनीय है, लेकिन जब खिलाड़ी खुद प्रतियोगिताओं से दूरी बना रहे हों, तो आत्ममंथन जरूरी हो जाता है। यह स्थिति महज संयोग नहीं, बल्कि भारतीय खेल तंत्र में गहरी जड़ें जमा चुकी समस्या का संकेत है।

 

डोपिंग का डर और नाडा की दहशत

 

भारतीय खेलों में डोपिंग के बढ़ते मामलों ने खिलाड़ियों के मन में भय पैदा कर दिया है। एंटी डोपिंग एजेंसी नाडा (NADA) का नाम सुनते ही कई खिलाड़ी सहम जाते हैं। उन्हें लगता है कि पदक जीतना ही उनके करियर के लिए खतरा बन सकता है। इसी डर से कई खिलाड़ी या तो प्रतियोगिता से पहले नाम वापस ले लेते हैं या फिर मुकाबला शुरू होने से पहले ही वॉकओवर देकर मैदान छोड़ देते हैं। यह मानसिकता खेल संस्कृति के लिए बेहद घातक है।

 

2036 ओलंपिक की दावेदारी पर सवाल

 

भारत 2036 ओलंपिक की मेजबानी का सपना देख रहा है, लेकिन मौजूदा हालात उस सपने को कमजोर करते नजर आते हैं। जब घरेलू प्रतियोगिताओं में ही प्रतिभागियों की कमी हो, तो अंतरराष्ट्रीय स्तर की तैयारियों पर सवाल उठना स्वाभाविक है। ऐसा प्रतीत होने लगा है कि भारतीय खेलों का पहिया आगे नहीं, बल्कि उल्टी दिशा में घूम रहा है।

 

एक खेल, कई फेडरेशन

 

भारतीय खेल प्रशासन की अव्यवस्था का एक बड़ा उदाहरण बॉक्सिंग है। वर्ल्ड चैंपियनशिप के लिए दुबई गई भारतीय टीम में देश के शीर्ष बॉक्सर शामिल ही नहीं थे। कारण यह कि बॉक्सिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया और भारतीय एमेच्योर बॉक्सिंग फेडरेशन के बीच चल रहे विवाद के चलते खिलाड़ी बंट गए। नतीजा यह रहा कि 13 में से 11 मुक्केबाज पहले ही दौर में बाहर हो गए।

 

मुकदमों की दलदल

 

खेलों पर खर्च होने वाला बड़ा हिस्सा आज कोर्ट-कचहरियों में उलझा है। पिछले दस वर्षों में खेलों से जुड़े 770 मामले अदालतों तक पहुंचे, जिनमें 462 हाईकोर्ट और 22 सुप्रीम कोर्ट में दर्ज हुए। यह धन और ऊर्जा दोनों की भारी बर्बादी है।

 

पैसे की तंगी और कमजोर फेडरेशन

 

लगातार मुकदमों और प्रशासनिक खींचतान ने कई खेल फेडरेशनों को आर्थिक रूप से पंगु बना दिया है। हालात ऐसे हैं कि कुछ फेडरेशनों के पास प्रतियोगिता आयोजित करने के लिए तकनीकी अधिकारियों को भुगतान करने तक के संसाधन नहीं बचे। साफ है कि फेडरेशनों को अपनी आय के स्रोत मजबूत करने और पारदर्शी व्यवस्था अपनाने की सख्त जरूरत है।

 

समाधान की ओर नजर

 

भारतीय खेलों को आगे बढ़ाने के लिए सिर्फ बजट बढ़ाना काफी नहीं होगा। डोपिंग के डर को खत्म करने, खिलाड़ियों को विश्वास में लेने, फेडरेशनों की संख्या और विवादों को कम करने तथा प्रशासनिक सुधारों की तत्काल जरूरत है।

वरना वह दिन दूर नहीं, जब स्टेडियम तो भरे होंगे—लेकिन ट्रैक और अखाड़े खाली नजर आएंगे।

 

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