
रांची।
झारखंड सरकार द्वारा हाल ही में मंजूर किए गए PESA (पंचायत विस्तार अनुसूचित क्षेत्र) नियमों को लेकर आदिवासी संगठनों में असंतोष गहराता जा रहा है। आदिवासी बुद्धिजीवी मंच ने इन नियमों को संसद द्वारा वर्ष 1996 में बनाए गए PESA अधिनियम की भावना और प्रावधानों के खिलाफ बताते हुए झारखंड हाईकोर्ट में चुनौती देने की घोषणा की है।
संसदीय कानून की अनदेखी का आरोप
आदिवासी बुद्धिजीवी मंच के राष्ट्रीय संयोजक विक्टर माल्टो ने प्रेस बयान में कहा कि राज्य सरकार ने अनुसूचित क्षेत्रों के लिए बनाए गए विशेष संसदीय कानून को दरकिनार कर एक बार फिर सामान्य पंचायत राज व्यवस्था लागू करने का प्रयास किया है।
उनका कहना है कि यह कदम संविधान के पांचवें अनुसूची और संसद के 1996 के अधिनियम की मूल भावना के विरुद्ध है।
हाईकोर्ट के पूर्व आदेश का हवाला
विक्टर माल्टो ने बताया कि आदिवासी बुद्धिजीवी मंच की ओर से दायर WP (PIL) No. 1589/2021 में झारखंड हाईकोर्ट ने अपने आदेश के पैरा-12 में स्पष्ट किया था कि झारखंड पंचायत राज अधिनियम, 2001 को संसद के PESA अधिनियम, 1996 के अनुरूप नहीं माना जा सकता।
इसके बावजूद सरकार ने नए नियम बनाते समय उसी तीन-स्तरीय पंचायत राज व्यवस्था को आधार बनाया, जो अदालत के निर्देशों की अवहेलना है।
धारा 3 और 4(m) के उल्लंघन का दावा
आदिवासी बुद्धिजीवी मंच का आरोप है कि मौजूदा PESA नियम 1996 के अधिनियम की धारा 3 और धारा 4(m) का सीधा उल्लंघन करते हैं।
इन धाराओं के तहत ग्राम सभा और पंचायतों को कुल सात विशेष अधिकार दिए गए हैं, जिनमें:
- ग्राम सभा की सर्वोच्च भूमिका
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प्राकृतिक संसाधनों पर सामुदायिक अधिकार
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विकास योजनाओं में अंतिम सहमति
जैसे प्रावधान शामिल हैं। मंच का कहना है कि नए नियमों में इन अधिकारों को कमजोर और सीमित कर दिया गया है।
गजट नोटिफिकेशन के बाद अदालत का रुख
विक्टर माल्टो ने स्पष्ट किया कि जैसे ही नए PESA नियमों का गजट नोटिफिकेशन जारी होगा, आदिवासी बुद्धिजीवी मंच इन्हें झारखंड हाईकोर्ट में चुनौती देगा।
उनका कहना है कि यह लड़ाई सिर्फ नियमों की नहीं, बल्कि आदिवासी स्वशासन और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की है।
पहले भी दायर हो चुकी है अवमानना याचिका
गौरतलब है कि झारखंड में 29 साल पुराने PESA अधिनियम को लागू करने में लगातार हो रही देरी को लेकर आदिवासी बुद्धिजीवी मंच पहले ही हाईकोर्ट में अवमानना याचिका दाखिल कर चुका है।
लंबे इंतजार के बाद जब नियम सामने आए, तो उन्हें ही कानून के मूल सिद्धांतों के विपरीत बताया जा रहा है, जिससे आदिवासी संगठनों में नाराजगी और अविश्वास और बढ़ गया है।
सवाल जो खड़े हो रहे हैं
विशेषज्ञों का मानना है कि यदि राज्य सरकार द्वारा बनाए गए नियम संसदीय कानून से टकराते हैं, तो वे कानूनी कसौटी पर टिक नहीं पाएंगे।
अब सबसे बड़ा सवाल यह है—
क्या झारखंड सरकार PESA की आत्मा के अनुरूप संशोधन करेगी, या फिर यह विवाद अदालत में लंबी कानूनी लड़ाई का रूप लेगा?