
नई दिल्ली। तमिलनाडु की दुर्गम सिट्टीलिंगी घाटी, जहां कभी बीमारी, कर्ज और पलायन ने गांवों की सांसें रोक दी थीं, आज आत्मनिर्भरता और सेहत की मिसाल बन चुकी है। इस बदलाव के केंद्र में हैं डॉ. रेगी जॉर्ज और डॉ. ललिता रेगी—एक ऐसा डॉक्टर दंपती, जिसने इलाज को सिर्फ दवाओं तक सीमित नहीं रखा, बल्कि स्वास्थ्य को आजीविका और आत्मसम्मान से जोड़ा।
साल 1993 में दोनों ने सिट्टीलिंगी को अपनी कर्मभूमि चुना। तब यह इलाका बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं से कोसों दूर था। शिशु मृत्यु दर प्रति हजार 150 तक पहुंच चुकी थी। संसाधन नहीं थे, रास्ते कठिन थे, लेकिन इरादे मजबूत थे। एक छोटी सी झोपड़ी से स्वास्थ्य सेवा की शुरुआत हुई और स्थानीय महिलाओं को ही नर्स व स्वास्थ्य कार्यकर्ता बनाकर इस लड़ाई में शामिल किया गया।
अस्पताल से बदली गांव की तकदीर
समय के साथ वह झोपड़ी 35 बेड के आधुनिक अस्पताल में बदल गई। पिछले 20 वर्षों में यहां एक भी प्रसवकालीन मृत्यु दर्ज नहीं हुई। लेकिन डॉक्टरों ने जल्द समझ लिया कि बीमारी की जड़ें अस्पताल के बाहर हैं—गरीबी, कर्ज, कुपोषण और बेरोजगारी।
यहीं से शुरू हुआ इलाज से आगे बढ़कर समाधान का सफर।
खेती से स्वास्थ्य तक—SOFA का जन्म
साल 2003 में डॉक्टर दंपती ने गांव-गांव पैदल घूमकर हालात का जायजा लिया। पता चला कि रासायनिक खेती किसानों को कर्ज के दलदल में धकेल रही है। समाधान के तौर पर उन्होंने जैविक खेती को अपनाने का आह्वान किया।
साल 2005 में केवल चार किसानों से शुरू हुई ‘सिट्टीलिंगी ऑर्गेनिक फार्मर्स एसोसिएशन’ (SOFA) आज 700 किसानों की कंपनी बन चुकी है। बिचौलियों को हटाकर सीधे बाजार से जुड़ाव कराया गया। नतीजा—किसानों की आय बढ़ी, कर्ज कम हुआ और पलायन रुका। आज SOFA का सालाना टर्नओवर 3 करोड़ रुपये से अधिक है।
खेत से थाली तक का मॉडल
स्वास्थ्य और पोषण को मजबूत करने के लिए घाटी में ही मिलेट (बाजरा) प्रोसेसिंग सेंटर स्थापित किया गया। ग्रामीणों ने पॉलिश चावल छोड़कर अपने खेतों में उगे पोषक अनाज अपनाए। सौर ऊर्जा से चलने वाली इकाइयों में तेल, शहद और साबुन जैसे उत्पाद तैयार होने लगे।
इस ‘खेत से थाली तक’ मॉडल से बच्चों और महिलाओं में एनीमिया व कुपोषण में उल्लेखनीय कमी आई।
महिलाओं की आत्मनिर्भरता की उड़ान
खेती के साथ-साथ महिलाओं के लिए ‘पोरगई’ (लंबाडी बोली में ‘गर्व’) नाम की हस्तशिल्प इकाई शुरू की गई। आज 60 से अधिक महिलाएं कढ़ाई-सिलाई के जरिए 1 करोड़ रुपये से अधिक का कारोबार कर रही हैं। घर से काम, नियमित आमदनी और आत्मसम्मान—तीनों साथ आए।
स्वास्थ्य से स्टार्टअप तक
आज डॉ. रेगी और डॉ. ललिता की यह पहल 4 करोड़ रुपये से अधिक के टर्नओवर वाला सफल सामाजिक उद्यम बन चुकी है। इसने न सिर्फ शिशु मृत्यु दर घटाई, बल्कि गांवों को कर्जमुक्त कर पलायन रोकने में भी अहम भूमिका निभाई।
आगे की राह
डॉक्टर दंपती अब कलरायण पहाड़ियों में एक बड़े अस्पताल के निर्माण और ‘सिट्टीलिंगी मॉडल’ के विस्तार की तैयारी में हैं। उनका मानना है कि स्वास्थ्य सेवा अस्पताल की दीवारों तक सीमित नहीं, बल्कि मजबूत ग्रामीण अर्थव्यवस्था और बेहतर जीवन स्तर में बसती है।
सिट्टीलिंगी की कहानी बताती है—जब इलाज के साथ उम्मीद, रोजगार और आत्मनिर्भरता जुड़ जाए, तो गांव सिर्फ जिंदा नहीं रहते, बल्कि खिल उठते हैं।