Monday, December 29

10 मिनट में डिलीवरी का दबाव, पटना के राइडर्स की ज़िंदगी पर भारी तेज़ सुविधा के नाम पर रोज़मर्रा की मौत का खेल, मजदूरों की आवाज़ बुलंद

 

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ऑनलाइन शॉपिंग की रफ्तार जहां शहरों को डिजिटल तौर पर जोड़ रही है, वहीं पटना जैसे शहर में 10 मिनट में डिलीवरी का दबाव उन नौजवानों की ज़िंदगी पर भारी पड़ रहा है जो यह सुविधा देने की उम्मीद में सड़क पर अपने प्राण ख़तरे में डालते हैं। यह कोई फ़्लैश रिपोर्ट नहीं, बल्कि स्थानीय राइडर्स की दर्दभरी हकीकत है—जिसे अब संसद‑स्तर पर भी एक गंभीर समस्या के तौर पर उठाया गया है।

 

डेटा और टाइमर की घड़ी में फंसी ज़िंदगी

 

राज्यसभा सांसद राघव चड्ढा ने 10 मिनट डिलीवरी मॉडल को एक ऐसे सिस्टम के रूप में वर्णित किया है जो कामगारों को सिर्फ एक डेटा से बांध देता है। इसका असर इतना खतरनाक है कि राइडर्स न केवल अपनी जान जोखिम में डालते हैं, बल्कि अनिवार्य रूप से अपनी धड़कनें भी तेज कर लेते हैं। यह समस्या पटना जैसे टियर‑2 शहरों में रोज़ाना दिखती है, जहाँ विकल्प कम हैं और मजबूरी ज़्यादा है। ([Navbharat Times][1])

 

25 वर्षीय किशन कुमार बताते हैं कि दबाव कभी खत्म नहीं होता। उन्हें हर डिलीवरी के लिए केवल 15 मिनट मिलते हैं—इतने समय के बाद जुर्माना अपने आप लग जाता है। रेटिंग घटती है, कमाई कम होती है और प्रोत्साहन राशि हाथ से निकल जाती है। वह कहते हैं कि वे जानबूझकर लापरवाही से गाड़ी नहीं चलाते, लेकिन शहर के भीड़भाड़ वाले ट्रैफिक में तेज़ गति से चलाना उनकी मजबूरी बन जाती है। जब सड़कें खाली होती हैं, वे अक्सर 80–90 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से गाड़ी चलाते हैं क्योंकि ऐप में सिर्फ स्पीड को ही गिना जाता है। कई बार गलत साइड पर भी गाड़ी चलानी पड़ती है—एक छोटी सी गलती भी उनकी जान ले सकती है। ([Navbharat Times][2])

 

ख़र्च, कमाई और निरंतर आर्थिक दिक्कत

 

इस जोखिम के पीछे का आर्थिक गणित बेहद जटिल है। 26 वर्षीय रोशन कुमार बताते हैं कि पेट्रोल पर 300 रुपये और खाने‑पीने पर 200 रुपये खर्च करने के बाद उनकी वास्तविक दैनिक आय मात्र 600–700 रुपये ही बचती है। प्रोत्साहन राशि पाने के लिए कम से कम 10 घंटे ऐप में लॉग इन रहना पड़ता है, फिर भी प्रोत्साहन लगभग 450 रुपये तक सीमित रह जाता है, जो दूरी और स्टोर के स्थान के हिसाब से घटता–बढ़ता है। ([Navbharat Times][3])

 

काम के माहौल में सम्मान और सुविधाओं की कमी

 

आर्थिक तंगी मात्र एक पहलू है। राइडर्स वर्कप्लेस पर सम्मान की कमी और बुनियादी सुविधाओं के अभाव की बात भी करते हैं। पटना में 20 से अधिक अस्थायी डिलीवरी केंद्र हैं, जिनमें हर एक पर 100–150 डिलीवरी बॉय काम करते हैं। फिर भी कई केंद्रों पर पीने का पानी बासी, गंदे बर्तन में रखा या बाथरूम महीनों से अस्वच्छ पड़े रहते हैं। राइडर्स को अपना पानी खुद लाना पड़ता है या पूरी रात साथ रखना होता है। हाथ धोने तक की जगह न मिलने जैसी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ([Navbharat Times][4])

 

बीमा का भ्रम, सहायता का अभाव

 

कंपनियों की तरफ से मिलने वाली ऐप‑आधारित बीमा योजनाएं आश्वासन की तरह दिखती हैं, लेकिन असल में अक्सर यह एक भ्रम साबित होती हैं। 32 वर्षीय रोहन कुमार बताते हैं कि दुर्घटना होने पर कंपनी कई बार राइडर को इलाज का खर्च खुद उठाने को कहती है और बाद में पैसे वापस करने का वादा करती है। महीनों बीत जाने के बावजूद एक भी रुपये की वापसी नहीं होती—जो आर्थिक तौर पर मुश्किल से गुजर रहे राइडर्स के लिए असंभव है। ऐसे में यह फीचर केवल मार्केटिंग के लिए दिखाया गया वादा बनकर रह जाता है। ([Navbharat Times][5])

 

ग्राहक व्यवहार और मानसिक दबाव

 

ग्राहकों का व्यवहार भी इस प्रतिद्वंद्विता को और बढ़ा देता है। 28 वर्षीय सुरेश का कहना है कि उन्हें इंसान माना जाने की बजाय मशीन की तरह देखा जाता है, जो सिर्फ गति और समय पर केंद्रित है। गलत पते देने पर भी ग्राहक लचीलापन नहीं दिखाते; देरी होने पर खराब रेटिंग और गाली‑गलौच तक का सामना करना पड़ता है। ऐप पर उत्पीड़न की शिकायत का कोई सशक्त माध्यम नहीं है—केवल एक साधारण समीक्षा का विकल्प है जिसका कोई महत्व नहीं। ([Navbharat Times][6])

 

कानूनी बदलाव, लेकिन लागू होने में समय

 

कागज़ों पर बदलाव की उम्मीद तो दिख रही है। श्रमिक संघों के दबाव के बाद बिहार सरकार ने 2025 में बिहार प्लेटफ़ॉर्म आधारित गिग वर्कर्स अधिनियम पारित किया, जो 4 लाख रुपये तक के दुर्घटना मुआवजे जैसी सुरक्षा का वादा करता है। यह बिहार को इस तरह का कानून बनाने वाला पहला राज्य बनाता है। लेकिन अधिसूचित नियमों की कमी और लागू होने वाली वास्तविकता तक का अंतर बहुत बड़ा है—और फिलहाल यह सुरक्षा काफी हद तक सैद्धांतिक ही है। जब तक इसे जमीन पर लागू नहीं किया जाता, पटना के डिलीवरी राइडर्स एक उच्च‑जोखिम वाली अर्थव्यवस्था में काम करते रहेंगे, जहाँ हर मिनट मायने रखता है और हर देरी पर जुर्माना। ([Navbharat Times][7])

 

10 मिनट में डिलीवरी का वादा उपभोक्ताओं को सुविधा दे सकता है, लेकिन इसे पूरा करने वाले युवाओं की ज़िंदगी और सुरक्षा को जोखिम में डालकर नहीं। सुरक्षित कामकाजी माहौल, भरोसेमंद सुविधाएं, वास्तविक बीमा और ग्राहक‑समर्थन की व्यवस्था के बिना यह सुविधा महज़ एक घातक खेल बनकर रह जाएगी। पटना के राइडर्स की आवाज़ यही कहती है—कुछ मिनटों की जल्दी के लिए हमारी ज़िंदगी की बाज़ी लगाना बंद करें, और असली सुरक्षा व सम्मान की गारंटी दें।

 

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