
सुकमा: देश के सबसे कुख्यात नक्सलियों में शामिल मादवी हिडमा और उसकी पत्नी राजे का गुरुवार को उनके गांव पूवर्ती में अंतिम संस्कार कर दिया गया। सुरक्षा कारणों से गांव के आसपास 10 किलोमीटर तक कड़ा पुलिस पहरा लगाया गया, जिससे कोई नक्सली अंतिम संस्कार में शामिल न हो सका। गांव में मातम का माहौल था—जहाँ बाकी दुनिया हिडमा को एक खूंखार चेहरा मानती थी, वहीं उसका परिवार उसे एक साधारण बेटे के रूप में याद कर रहा था।
सैकड़ों हत्याओं का आरोपी, पर गांव में रोने की गूंज
हिडमा को सुरक्षा एजेंसियां सैकड़ों हत्याओं का जिम्मेदार मानती थीं। वह नक्सलवाद का पोस्टर बॉय माना जाता था। लेकिन उसके गांव में माहौल बिल्कुल उल्टा था।
हिडमा की बूढ़ी मां के लिए ग्रामीणों ने चिता पर चढ़ाने हेतु कंबल और चादरें दान कीं, जो आदिवासी परंपरा में सम्मान और आत्मा की शांति का प्रतीक है।
जब शव घर पहुंचा, तो गांव में ‘रून-सौन’—आदिवासी पारंपरिक मातम की गूंज उठने लगी। कई घरों से रोने की आवाजें निकलने लगीं।
200 से अधिक ग्रामीण इकट्ठा, सुरक्षा के चलते हाट रद्द
अंतिम संस्कार के दौरान लगभग 200 ग्रामीण मौजूद रहे।
नक्सलियों की संभावित हरकतों को देखते हुए साप्ताहिक हाट को भी रद्द कर दिया गया। पूरा कार्यक्रम पुलिस सुरक्षा में शांतिपूर्वक संपन्न हुआ।
परिवार का दावा—”हिडमा खूंखार नहीं था”
राजे के भाई ने कहा कि हिडमा उनके लिए कभी हिंसक व्यक्ति नहीं था।
उन्होंने बताया—
“वह हमेशा पढ़ाई-लिखाई की सलाह देता था। उसने कभी हमें नक्सली रास्ते पर चलने को नहीं कहा। यह लड़ाई हमारी नहीं है, इसमें बस्तर के नौजवान मर रहे हैं।”
मां की अपील पर पुलिस ने शव घर तक पहुँचाया
हिडमा की मां ने अधिकारियों से भावुक अपील की थी—
“मैं बूढ़ी हो गई हूं, बेटे का शव गांव नहीं ला सकती… उसे घर ले आइए।”
इसके बाद पुलिस ने आंध्र प्रदेश से शव लाने में परिजनों की मदद की।
जब ताबूत घर पहुँचे, तो मां यह स्वीकार करने को मजबूर हो गई कि उसका बेटा अब कभी दरवाजे से अंदर नहीं आएगा।
जात में फिर शामिल कर लाल कफन से अंतिम सम्मान
हिडमा, जो कई वर्षों से नक्सल संगठन में शामिल था, आदिवासी समुदाय की रीति-रिवाजों से दूर हो गया था। परंपरा के अनुसार ऐसे व्यक्तियों को जात से बाहर माना जाता है।
अंतिम संस्कार से पहले ग्रामीणों ने विधि-विधान के साथ उसे दोबारा जात में शामिल किया, ताकि उसका संस्कार समुदाय के नियमों के अनुसार हो सके।
अंतिम संस्कार के दौरान हिडमा और उसकी पत्नी को लाल कफन दिया गया—
यह नक्सली परंपरा का प्रतीक है।
आम अंतिम संस्कार में सफेद कफन दिया जाता है, लेकिन नक्सलियों को लाल कफन चढ़ाने की परंपरा रही है।
गांव के दो चेहरे—बाहर आतिशबाजी, भीतर सन्नाटा
हिडमा के मारे जाने की खबर पर सुकमा के कई इलाकों में आतिशबाजी हुई थी, लेकिन उसके गांव पूवर्ती में सिर्फ मातम था।
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