
पटना हाईकोर्ट ने पॉक्सो (POCSO) अधिनियम के तहत एक बेहद अहम और दूरगामी असर वाला फैसला सुनाते हुए स्पष्ट किया है कि केवल मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर पीड़िता की उम्र तय नहीं की जा सकती। न्यायालय ने उम्र निर्धारण के लिए स्कूल रिकॉर्ड, दाखिला रजिस्टर और मैट्रिकुलेशन प्रमाण पत्र को अधिक विश्वसनीय मानते हुए इन्हें अनिवार्य साक्ष्य बताया है।
न्यायमूर्ति विवेक चौधरी और न्यायमूर्ति डॉ. अंशुमन की खंडपीठ ने इस निर्णय के तहत पवन कुमार मंडल की पॉक्सो मामले में हुई दोषसिद्धि को रद्द कर दिया और उसे तत्काल जेल से रिहा करने का आदेश दिया।
मेडिकल रिपोर्ट में 1–2 साल की त्रुटि संभव
अदालत ने अपने फैसले में कहा कि चिकित्सा विज्ञान के पास उम्र निर्धारित करने का कोई पूर्णतः सटीक तरीका नहीं है। मेडिकल रिपोर्ट में एक से दो साल तक का अंतर (Margin of Error) संभव है। ऐसे में किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता छीनने के लिए केवल मेडिकल राय को अंतिम आधार बनाना न्यायसंगत नहीं माना जा सकता।
खंडपीठ ने कहा कि जब मामला सहमति से बने शारीरिक संबंधों का हो, तब अदालतों को और अधिक सतर्कता से साक्ष्यों का मूल्यांकन करना चाहिए।
सहमति से बना संबंध, जबरदस्ती का कोई प्रमाण नहीं
मामले के तथ्यों पर गौर करते हुए न्यायालय ने पाया कि आरोपी पवन कुमार मंडल और पीड़िता के बीच लंबे समय से प्रेम संबंध थे और दोनों के बीच शारीरिक संबंध आपसी सहमति से बने थे। मेडिकल जांच में भी कहीं बल प्रयोग, हिंसा या जबरदस्ती के कोई निशान नहीं पाए गए।
अदालत ने माना कि अभियोजन पक्ष पीड़िता की उम्र को “संदेह से परे” साबित करने में असफल रहा।
‘केवल डॉक्टर की राय से सजा नहीं दी जा सकती‘
हाईकोर्ट ने स्पष्ट निर्देश दिया कि पॉक्सो मामलों में अभियोजन को मेडिकल रिपोर्ट के साथ-साथ दस्तावेजी साक्ष्यों का मिलान करना अनिवार्य होगा। केवल डॉक्टर की राय के आधार पर किसी को दोषी ठहराना कानून के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है।
पॉक्सो कानून का उद्देश्य रेखांकित
अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि पॉक्सो अधिनियम का उद्देश्य बच्चों को यौन शोषण से बचाना है, न कि इसे आपसी सहमति वाले प्रेम संबंधों में दंड का हथियार बनाना। कानून का प्रयोग भावनाओं के आधार पर नहीं, बल्कि ठोस और विश्वसनीय साक्ष्यों पर होना चाहिए।
भविष्य के मामलों के लिए मार्गदर्शक फैसला
कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार, यह फैसला भविष्य के पॉक्सो मामलों के लिए मील का पत्थर साबित होगा। यह निर्णय निचली अदालतों और जांच एजेंसियों को यह स्पष्ट संदेश देता है कि उम्र निर्धारण में जल्दबाजी और अनुमान के आधार पर किसी की जिंदगी और आज़ादी से खिलवाड़ नहीं किया जा सकता।