
वॉशिंगटन। अमेरिका में H-1B वीजा एक बार फिर सियासी बहस के केंद्र में है। कभी वीजा फीस बढ़ाने की चर्चा, तो कभी इसे पूरी तरह खत्म करने की मांग—H-1B वीजा को लेकर विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उनके समर्थक लगातार यह दावा करते रहे हैं कि H-1B वीजा होल्डर्स अमेरिकी नागरिकों की नौकरियां छीन रहे हैं और कंपनियां इन्हें कम वेतन पर हायर करती हैं। लेकिन ताजा आंकड़े इन दावों को सिरे से खारिज करते नजर आते हैं।
कितनी सैलरी मिलती है H-1B वीजा पर?
रोजगार से जुड़ी प्रमुख वेबसाइट जिपरिक्रूटर की रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका में H-1B वीजा पर काम करने वाले प्रोफेशनल्स की औसत सालाना सैलरी 1,67,533 डॉलर है, जो भारतीय मुद्रा में करीब 1.52 करोड़ रुपये बैठती है। यानी H-1B वीजा होल्डर औसतन 80.54 डॉलर प्रति घंटा (लगभग 7,300 रुपये) कमाते हैं।
इतना ही नहीं, आंकड़ों के अनुसार H-1B वीजा होल्डर्स की अधिकतम सालाना सैलरी 2,16,000 डॉलर (करीब 1.96 करोड़ रुपये) तक पहुंच सकती है। वहीं, करीब 25 प्रतिशत वीजा होल्डर्स का सालाना पैकेज 1,41,000 डॉलर (लगभग 1.28 करोड़ रुपये) या उससे अधिक है।
अमेरिकी औसत सैलरी से कहीं ज्यादा
यदि इन आंकड़ों की तुलना अमेरिका की औसत सैलरी से की जाए, तो तस्वीर और साफ हो जाती है। अमेरिका में एक सामान्य कर्मचारी की औसत सालाना आय लगभग 55 लाख रुपये मानी जाती है। ऐसे में H-1B वीजा पर काम करने वाले प्रोफेशनल्स इससे कई गुना ज्यादा वेतन पा रहे हैं। इससे यह दावा कमजोर पड़ जाता है कि विदेशी वर्कर्स को कम सैलरी देकर कंपनियां फायदा उठा रही हैं।
‘कम वेतन’ का आरोप बेबुनियाद
रिपोर्ट यह भी स्पष्ट करती है कि H-1B वीजा होल्डर्स को आमतौर पर अमेरिकी कर्मचारियों के बराबर वेतन दिया जाता है। कानूनन भी कंपनियों को H-1B वीजा पर हायर किए गए कर्मचारियों को उस पद के तय वेतन से कम देने की अनुमति नहीं है।
भारतीयों का दबदबा बरकरार
गौरतलब है कि H-1B वीजा का सबसे बड़ा हिस्सा वर्षों से भारतीय प्रोफेशनल्स को मिलता आया है। टेक्नोलॉजी, आईटी, हेल्थकेयर, इंजीनियरिंग और एजुकेशन जैसे अहम सेक्टर्स में भारतीय विशेषज्ञ इस वीजा के जरिए अमेरिकी अर्थव्यवस्था की रीढ़ बने हुए हैं।
कुल मिलाकर, ताजा सैलरी आंकड़े यह साफ संकेत देते हैं कि H-1B वीजा होल्डर्स न सिर्फ अच्छी तनख्वाह पा रहे हैं, बल्कि अमेरिकी वर्कफोर्स के बराबर सम्मानजनक आर्थिक स्थिति में काम कर रहे हैं। ऐसे में ‘कम सैलरी पर नौकरी छीनने’ का तर्क तथ्यों के सामने कमजोर पड़ता नजर आ रहा है।