
नई दिल्ली/मॉस्को। ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल का सफर आसान नहीं था। 1990 के दशक में भारत विदेशों पर रक्षा तकनीक के लिए बहुत हद तक निर्भर था। उस समय न तो भारत के पास एयर-टू-एयर मिसाइल थी और न ही क्रूज मिसाइल। इसी दौर में भारत ने यह निर्णय लिया कि अब देश को विदेशी तकनीक पर निर्भर नहीं रहना चाहिए।
रूस का अचानक ऑफर
डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम और डॉ. ए. शिवथानु पिल्लई के नेतृत्व में भारत ने एक सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल बनाने की योजना बनाई। डॉ. अतुल दिनकर राणे, जो DRDO में आकाश मिसाइल प्रोजेक्ट से जुड़े थे, इस कोर टीम का हिस्सा बने।
1993 में रूस ने अचानक सुपरसोनिक रैमजेट इंजन भारत को ऑफर किया। रूस ने कहा कि उनके पास इंजन है और एक छोटा मिसाइल डिजाइन तैयार है। अगर भारत चाहे तो दोनों देश मिलकर इसे विकसित कर सकते हैं। इसके बाद डॉ. कलाम और डॉ. पिल्लई रूस गए और इंजन की जांच के बाद भारत में टीम बनाई गई, जिससे ब्रह्मोस मिसाइल का विकास शुरू हुआ।
ब्रह्मोस की तकनीकी चुनौतियां
ब्राह्मोस की शुरुआती यात्रा आसान नहीं थी। बजट सीमित था और टेस्टिंग सुविधाएं कम थीं। शुरुआती परीक्षणों में कई बार इंजन सिंक्रनाइजेशन और गाइडेंस सिस्टम में दिक्कतें आईं। डॉ. राणे ने बताया कि उन्होंने सॉफ्टवेयर आर्किटेक्चर, ऑनबोर्ड कंप्यूटर सिस्टम और गाइडेंस कंट्रोल नेविगेशन जैसी तकनीकों को विकसित किया।
पहली सफल टेस्ट फ्लाइट में ब्रह्मोस ने 150 किलोमीटर दूर रिटायर्ड युद्धपोत को बिना वारहेड के दो हिस्सों में काट दिया। यह सफलता भारतीय वैज्ञानिकों के लिए बड़ी उपलब्धि थी।
ब्रह्मोस का विकास और आज
2000 के दशक तक ब्रह्मोस पूरी तरह विकसित हो चुका था और धीरे-धीरे इसके तीनों वैरिएंट—नौसेना, थल सेना और वायुसेना के लिए तैयार किए गए। डॉ. राणे ने हर प्लेटफॉर्म के लिए सॉफ्टवेयर, सेंसर और नेविगेशन सिस्टम को इस तरह इंटीग्रेट किया कि मिसाइल चाहे जमीन से लॉन्च हो या Sukhoi-30 MKI से, उसकी सटीकता और रफ्तार समान बनी रहे।
आज ब्रह्मोस का लगभग 80% हिस्सा स्वदेशी बन चुका है। प्रपल्शन सिस्टम से लेकर ऑनबोर्ड कंप्यूटर और वारहेड तक सब भारत में निर्मित हैं। ब्रह्मोस अब भारत की नौसेना, वायुसेना और थलसेना की रीढ़ बन चुका है और फिलीपींस इसका पहला निर्यात ग्राहक है।
BrahMos-NG, यानी ब्रह्मोस की नेक्स्ट जेनरेशन मिसाइल, भी विकासाधीन है, जो आने वाले समय में दुश्मनों के लिए कहर का दूसरा नाम बनेगी।
ब्राह्मोस की कहानी यही सिखाती है कि कैसे भारत ने विदेशी तकनीक का सहयोग लेकर स्वदेशी शक्ति में बदल दिया और दुनिया में अपनी मिसाइल क्षमता का लोहा मनवाया।