
हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्युलर) के संस्थापक और केंद्रीय मंत्री जीतन राम मांझी एक बार फिर अपनी चिर-परिचित विद्रोही शैली में सियासी हलकों में हलचल पैदा कर रहे हैं। गया में आयोजित एक जनसभा में उन्होंने एनडीए गठबंधन, खासतौर पर भाजपा, के खिलाफ खुलकर मोर्चा खोलते हुए ऐसे बयान दिए हैं, जिनसे उनकी केंद्रीय मंत्री की कुर्सी पर सवाल खड़े हो गए हैं। मांझी के तेवर यह संकेत दे रहे हैं कि वे राज्यसभा की एक सीट के लिए बड़ा राजनीतिक जोखिम उठाने को तैयार हैं।
जनसभा को संबोधित करते हुए मांझी ने आरोप लगाया कि भाजपा ने उनके साथ वादाखिलाफी की है। उन्होंने कहा कि लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने दो लोकसभा और एक राज्यसभा सीट देने का आश्वासन दिया था, लेकिन राज्यसभा की सीट उन्हें नहीं मिली। मांझी ने साफ शब्दों में चेतावनी दी कि यदि राज्यसभा की सीट नहीं दी गई, तो वे मंत्रिपद छोड़ने से भी पीछे नहीं हटेंगे और जरूरत पड़ी तो एनडीए गठबंधन से अलग होने का रास्ता भी अपना सकते हैं।
कुछ दिन पहले दिए गए एक अन्य बयान में मांझी ने अपने ही गठबंधन पर उन्हें कमतर आंकने का आरोप लगाया था। उन्होंने अपने पुत्र और बिहार सरकार में मंत्री डॉ. संतोष सुमन को 100 सीटों पर चुनाव की तैयारी करने का आह्वान करते हुए कहा था कि समाज उनके साथ खड़ा है और समय आने पर स्वतंत्र चुनाव लड़ने से भी गुरेज नहीं किया जाएगा। यह बयान भी सियासी गलियारों में काफी चर्चा का विषय बना।
यह पहला मौका नहीं है जब जीतन राम मांझी ने स्वतंत्र चुनाव लड़ने या गठबंधन से अलग राह अपनाने की बात कही हो। करीब तीन महीने पहले पार्टी के एक अधिवेशन में भी उन्होंने कार्यकर्ताओं से कहा था कि जनसमर्थन उनके साथ है, टिकट किसी और को मिल जाता है—ऐसी स्थिति अब स्वीकार्य नहीं है और जरूरत पड़ी तो वे स्वतंत्र चुनाव लड़ेंगे।
हालांकि, राजनीतिक जानकारों का मानना है कि मांझी की यह रणनीति विरोध और दबाव की राजनीति का ही हिस्सा है। अक्सर उनके बयानों को गठबंधन के भीतर अपनी बात मनवाने की कोशिश के तौर पर देखा जाता है। यही कारण है कि एनडीए के सहयोगी दल भी उनके बयानों को बहुत गंभीरता से नहीं लेते।
मांझी का सियासी अतीत भी ऐसे ही अटपटे बयानों से भरा रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद नीतीश कुमार ने उन्हें बिहार का मुख्यमंत्री बनाया था, लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके विवादित बयानों और फैसलों ने उनकी ही सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया। 2015 में कमीशन और बिजली बिल से जुड़े उनके बयानों ने राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया, जिसके चलते उन्हें मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा और अंततः पार्टी से भी अलग होना पड़ा।
आज एक बार फिर वही सवाल खड़ा है—क्या जीतन राम मांझी राज्यसभा की एक सीट के लिए अपनी केंद्रीय मंत्री की कुर्सी कुर्बान करने को तैयार हैं, या यह बयानबाजी भी पहले की तरह दबाव बनाने की रणनीति साबित होगी? आने वाले दिनों में यह साफ हो जाएगा कि मांझी का यह सियासी दांव कितनी दूर तक जाता है।