
कैमूर (बिहार)। शादी, बारात, दूल्हा-दुल्हन और शहनाई—ये शब्द बिहार के कैमूर जिले के एक गांव के लिए मानो किसी दूसरी दुनिया की बातें हों। कैमूर की पहाड़ियों में बसा बरवां कला गांव बीते पांच दशकों से एक ऐसी विडंबना को जी रहा है, जहां न तो शादियां होती हैं और न ही किसी घर में विवाह की खुशियां दस्तक देती हैं। यही वजह है कि यह गांव आज ‘कुंवारे लड़कों का गांव’ या ‘कुंवारों की बस्ती’ के नाम से जाना जाता है।
एक बार एक परिवार अपनी बेटी के लिए लड़का देखने बरवां कला की ओर निकला, लेकिन गांव तक पहुंचने के लिए पक्की सड़क न होने के कारण आधे रास्ते से ही लौट आया। परिवार का सवाल सीधा था—“जहां पहुंचना ही मुश्किल हो, वहां बेटी की शादी कैसे करेंगे?” यही सवाल बरवां कला के सैकड़ों युवाओं की जिंदगी की सबसे बड़ी सच्चाई बन चुका है।
बुनियादी सुविधाओं का अभाव बना अभिशाप
ग्रामीण पर्यटन से जुड़ी एक सरकारी वेबसाइट पर इस गांव को ‘कुंवारों की बस्ती’ बताया गया है। हालांकि पंचायत मुखिया नंद लाल सिंह का कहना है कि यह कोई रहस्यमयी कहानी नहीं, बल्कि विकास की अनदेखी का नतीजा है। पंचायत के कई गांव—बरवां कला, बरवां खुर्द, सरवंदग, सुरकुर खुर्द और तोरी—आज भी सड़क, पीने के पानी और स्थायी बिजली जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। ऐसे में यहां रहना तो कठिन है ही, शादी जैसे सामाजिक आयोजन की कल्पना भी मुश्किल है।
गर्मी में सूख जाते हैं हैंडपंप, अस्पताल 45 किमी दूर
बरवां कला की दुश्वारियां यहीं खत्म नहीं होतीं। गर्मियों में हैंडपंप सूख जाते हैं और महिलाओं को पानी के लिए करीब एक किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। नजदीकी अस्पताल और थाना लगभग 45 किलोमीटर दूर हैं। बिजली सौर पैनलों से आती है, लेकिन वह भी रुक-रुक कर। मोबाइल नेटवर्क नाममात्र का है, जिससे बाहरी दुनिया से संपर्क लगभग कट जाता है।
भौगोलिक अलगाव ने छीनी वैवाहिक खुशियां
टीओआई की एक पुरानी रिपोर्ट के अनुसार, यह गांव कैमूर पहाड़ियों की चोटी पर बसा है। यहां तक पहुंचने के लिए चार घंटे तक पैदल चलना पड़ता है, वह भी पथरीले और खतरनाक रास्तों से। वर्ष 2009 में गांव के करीब 200 परिवारों में से 115 से अधिक पुरुष अविवाहित थे। कारण साफ था—भौगोलिक अलगाव और सुविधाओं की भारी कमी।
टूटती उम्मीदें, बिखरते सपने
गांव के कई पुरुषों के लिए शादी एक अधूरा सपना बन चुकी है। राजगिरी सिंह बताते हैं कि उनकी शादी की बात पांच बार टूट चुकी है। वे कहते हैं, “मेरी जमीन और पुश्तैनी घर यहीं है। मैं इसे छोड़कर कहां जाऊं?” कुछ शादियां तय तो होती हैं, लेकिन बारात पहाड़ी रास्तों से डरकर बीच से ही लौट जाती है। कई मामलों में दूल्हे खुद दुल्हन को तलहटी तक लाने को मजबूर हुए हैं।
खुद बनाई सड़क, लेकिन रोक दी गई कोशिश
हताश ग्रामीणों ने एक बार खुद ही फावड़े और कुल्हाड़ी उठाकर सड़क बनाने की कोशिश की। वे 4.6 किलोमीटर तक रास्ता समतल करने में सफल भी हुए, लेकिन वन क्षेत्र होने के कारण वन विभाग ने निर्माण कार्य रुकवा दिया।
विकास की राह देखता गांव
बरवां कला आज भी सड़क, बिजली, पानी और संचार जैसी बुनियादी सुविधाओं का इंतजार कर रहा है। यह गांव कोई किंवदंती नहीं, बल्कि उस भारत की तस्वीर है, जहां विकास की रफ्तार कुछ जगहों तक अभी पहुंच ही नहीं पाई है। यहां के युवाओं की सबसे बड़ी मांग भी साधारण है—एक सड़क, ताकि उनकी जिंदगी में भी कभी शहनाई बज सके।