
घर में कभी भी आर्थिक दबाव या संकट आने पर अक्सर महिलाओं के खर्चों को सबसे पहले कम कर दिया जाता है। यह सोच समाज में इतनी जड़ें जमा चुकी है कि महिलाओं की जरूरतों को प्राथमिकता नहीं दी जाती। इस मानसिकता पर सवाल उठाया है एडवोकेट वंदना ने, जिन्होंने राज शमानी के पॉडकास्ट में कहा, “आर्थिक संकट में हमेशा महिलाओं को ही त्याग करना पड़ता है, जबकि उनका योगदान और जरूरतें कम नहीं हैं।”
पॉडकास्ट में वकील साहिबा की बात
एडवोकेट वंदना ने कहा कि जब घर में कोई आर्थिक आपदा आती है, तो सबसे पहले महिलाओं के खर्चे कटते हैं। चाहे वह उनकी व्यक्तिगत जरूरतें हों या आराम-चिकित्सा और पोषण से जुड़ा खर्च, उसे प्राथमिकता नहीं दी जाती। उन्होंने कहा, “हमेशा टेबल पर महिलाएं आखिरी होती हैं। घर में यह कहा जाता है कि पैसे सेव करने चाहिए थे, आपने खर्च क्यों किया?”
यूजर्स की प्रतिक्रियाएँ
सोशल मीडिया पर इस सवाल को लेकर मिली-जुली प्रतिक्रियाएँ आईं। कुछ ने इसे सही माना और कहा कि महिलाओं के खर्चे हमेशा कटते हैं, जबकि कुछ ने कहा कि पुरुष भी अपनी चीज़ों का त्याग करते हैं, लेकिन उस पर ध्यान नहीं जाता। एक यूजर ने लिखा, “पिता दिन-रात कमाते हैं, फिर भी उनकी जरूरतें पीछे रहती हैं, लेकिन यह नोटिस नहीं किया जाता।”
एक्सपर्ट की राय
डॉ. अर्चना शर्मा, सीनियर कंसल्टेंट साइकोलॉजी, श्री बालाजी एक्शन मेडिकल इंस्टिट्यूट, दिल्ली ने कहा कि महिलाओं की जरूरतों को कम आंकना समाज में गहरी जड़ें जमा चुका है। आर्थिक संकट के समय महिलाएं अक्सर अपनी स्वास्थ्य, पोषण और आराम की जरूरतें टाल देती हैं ताकि बच्चों और बुजुर्गों की प्राथमिकताएं पूरी हो सकें।
डॉ. शर्मा ने आगे कहा, “महिलाओं की सेहत पूरे परिवार की सेहत से जुड़ी होती है। अगर महिला स्वस्थ नहीं रहेगी, तो परिवार भी लंबे समय तक ठीक नहीं रह पाएगा। इसलिए आर्थिक संकट में महिलाओं की जरूरतों को नजरअंदाज करना नहीं, बल्कि उन्हें बराबर महत्व देना चाहिए। उनका स्वास्थ्य, पोषण और आत्मसम्मान किसी फालतू खर्च नहीं, बल्कि परिवार और समाज के भविष्य में निवेश है।”