
रांची: बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू के राष्ट्रीय नेता नीतीश कुमार की राजनीतिक पकड़ बिहार में मजबूत होने के बावजूद, पड़ोसी राज्य झारखंड में पार्टी अपनी पैठ नहीं बना पा रही है। लगभग दो दशक से सत्ता में बने रहने वाले नीतीश कुमार ने झारखंड में कई प्रयास किए, जातीय समीकरण साधने की कोशिश की, लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी।
जातीय समीकरण साधने की कोशिशें:
2024 में हुए झारखंड विधानसभा चुनाव से पहले नीतीश कुमार ने झारखंड के कुर्मी और कोइरी नेताओं के साथ कई बैठकें कीं। उनका उद्देश्य था कि कुर्मी वोटरों को साधकर जदयू के लिए एक मजबूत आधार तैयार किया जाए। 2022 में खीरू महतो को बिहार से राज्यसभा भेजा गया ताकि झारखंड में कुर्मी प्रतिनिधित्व बढ़ाया जा सके। इसके अलावा महतो को जदयू का सचेतक भी बनाया गया।
सीट शेयरिंग ने सब चौपट किया:
हालांकि, 2024 के विधानसभा चुनाव में सीट बंटवारे में जदयू को केवल 2 सीटें मिलीं। वहीं भाजपा ने 68, आजसू ने 10 और लोजपा (आर) ने 1 सीट पर चुनाव लड़ा। इस चुनाव में जदयू केवल सरयू राय की व्यक्तिगत जीत के भरोसे अपनी पैठ बनाए रख सका। अन्य उम्मीदवार झामुमो के मुकाबले हार गए।
कुर्मी बनाम कुड़मी की जटिलता:
झारखंड में कुड़मी समुदाय (जो बिहार-यूपी के कुर्मी समुदाय से मिलता-जुलता है) सामाजिक-सांस्कृतिक और भाषाई कारणों से अलग पहचान रखता है। खेती-किसानी से जुड़े इस समुदाय का मानना है कि उन्हें अनुसूचित जनजाति में शामिल किया जाना चाहिए, लेकिन आदिवासी समुदाय इस पर विरोध करता है। झारखंड में कुड़मी आबादी लगभग 20% है और कई पॉकेट में निर्णायक वोटर हैं।
नीतीश कुमार के सामने बड़ी चुनौती:
झारखंड में कुड़मी समुदाय के पहले से सक्रिय कई नेता हैं, जिनमें विनोद बिहारी महतो, सुदेश महतो और जयराम महतो शामिल हैं। इन नेताओं की वजह से नीतीश कुमार को झारखंड में अपना जातीय आधार मजबूत करना कठिन हो रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि जिस दिन नीतीश कुमार झारखंड में कुर्मी नेता के रूप में स्थापित होंगे, जदयू का विस्तार संभव हो पाएगा।
जदयू की लंबी राह:
झारखंड बनने के बाद से ही जदयू ने लगातार चुनावों में संघर्ष किया है। 2005 में गठबंधन के बावजूद जदयू 6 सीटों पर विजयी रही, 2009 और 2014 में सफलता सीमित रही और 2019 में पार्टी जीरो पर आउट हुई। इस तरह झारखंड में नीतीश कुमार की चुनौती बड़ी है और जातीय-सियासी समीकरण अभी भी जटिल बने हुए हैं।