
समय-सीमा तय करने वाला निर्णय असंवैधानिक करार, गवर्नर–राष्ट्रपति के विवेकाधिकार पर बड़ा बयान
संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा भेजे गए रेफरेंस पर सुप्रीम कोर्ट की पाँच जजों की संविधान पीठ ने बुधवार को बड़ा और ऐतिहासिक फैसला सुनाया। अदालत ने अपने ही पुराने फैसले को पलटते हुए साफ कर दिया कि राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए समय-सीमा निर्धारित करना असंवैधानिक है।
चीफ जस्टिस बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि यह संविधान की मूल भावना, शक्तियों के पृथक्करण और संवैधानिक पदों के विवेकाधिकार के खिलाफ है।
क्या कहा सुप्रीम कोर्ट ने?
1. समय-सीमा तय करना असंवैधानिक
तमिलनाडु मामले में दो जजों की बेंच द्वारा राज्यपाल व राष्ट्रपति के लिए तय की गई समय-सीमा को संविधान पीठ ने गलत बताया। अदालत ने कहा कि न तो राष्ट्रपति और न ही राज्यपाल किसी निश्चित टाइमलाइन से बाध्य हो सकते हैं।
2. ‘डीम्ड असेंट’ की अवधारणा खारिज
अदालत ने यह स्पष्ट किया कि विधेयक को बिना औपचारिक स्वीकृति के ही ‘डीम्ड असेंट’ मान लेना
संविधान की भावना के खिलाफ है। यह प्रक्रिया वास्तव में गवर्नर की शक्तियों पर “कब्जा” करने जैसा कदम है।
3. विवेकाधिकार सीमित नहीं हो सकता
बेंच ने कहा कि राज्यपाल के पास यह अधिकार है कि—
- वह बिल को टिप्पणियों के साथ विधानसभा को वापस भेज सकते हैं
- या उसे राष्ट्रपति के पास विचार हेतु सुरक्षित रख सकते हैं
इस विवेक पर संवैधानिक अदालत कोई बाध्यता नहीं लगा सकती।
4. अनिश्चितकाल तक रोक नहीं सकते बिल
यद्यपि समय सीमा तय नहीं की जा सकती, अदालत ने यह भी कहा कि
यदि राज्यपाल बिना कारण बताए अत्यधिक देरी करे, तो न्यायिक समीक्षा के माध्यम से अदालत उचित निर्देश दे सकती है।
लेकिन इस दौरान विधेयक के गुण-दोष नहीं देखे जाएंगे।
5. गवर्नर को संवाद का रास्ता अपनाने की नसीहत
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सहकारी संघवाद में राज्यपालों को शक्ति अवरोधक के रूप में नहीं, बल्कि संवाद और सहयोग के माध्यम से उपयोग करनी चाहिए।
राज्यपाल विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर अनिश्चितकाल तक चुप्पी नहीं साध सकते।
राष्ट्रपति ने क्यों मांगी थी राय?
तमिलनाडु के उन 10 विधेयकों को लेकर विवाद पैदा हुआ था, जो गवर्नर के पास महीनों तक लंबित रहे।
जस्टिस पारदीवाला–महादेवन की बेंच ने इन्हें स्वतः स्वीकृत (डीम्ड असेंट) मान लिया और साथ ही गवर्नर–राष्ट्रपति के लिए टाइमलाइन भी निर्धारित कर दी।
इसी फैसले पर सवाल उठाते हुए राष्ट्रपति ने 14 संवैधानिक प्रश्नों पर सर्वोच्च अदालत से राय मांगी थी।
कोर्ट में क्या थीं दलीलें?
केंद्र सरकार की दलील
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा—
- संसद अनुच्छेद 368 के तहत संविधान संशोधन कर सकती है
- न्यायपालिका सिर्फ व्याख्या कर सकती है, नियम नहीं बना सकती
- समय सीमा तय करना अदालत का अधिकार क्षेत्र नहीं है
विपक्ष शासित राज्यों की दलील
कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंहवी ने कहा—
- गवर्नर कई राज्यों में राजनीतिक कारणों से बिल रोकते हैं
- चुनी हुई सरकारों की नीतियों को लागू होने से रोका गया
- इसलिए प्रक्रिया में समय-सीमा अनिवार्य होनी चाहिए
हालांकि ‘डीम्ड असेंट’ पर उन्होंने भी असहमति जताई।
फैसले का व्यापक प्रभाव
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला
- गवर्नर–राष्ट्रपति की संवैधानिक शक्तियों की पुनर्स्थापना
- केंद्र और राज्यों के रिश्तों में नई स्पष्टता
- विधायी प्रक्रिया पर नए दिशानिर्देश
देता है।
वहीं अदालत ने यह भी सुनिश्चित किया है कि
गवर्नर संवैधानिक अधिकारों का दुरुपयोग न करें, और ज़रूरत पड़ने पर अदालत सीमित हस्तक्षेप कर सकेगी।