पवन के. वर्मा का कॉलम: युवाओं से जुड़े नीट मामले पर संसद में चर्चा क्यों नहीं?


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3 घंटे पहले

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पवन के. वर्मा लेखक, राजनयिक, पूर्व राज्यसभा सांसद - Dainik Bhaskar

पवन के. वर्मा लेखक, राजनयिक, पूर्व राज्यसभा सांसद

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में, उसकी केंद्रीय संस्था यानी संसद आज बड़े संकट का सामना कर रही है। भाजपा को भले पूर्ण बहुमत न मिला हो, लेकिन खण्डित जनादेश के बाद भी कुछ नहीं बदला है। वहीं पहले से अधिक संगठित और उग्र विपक्ष पिछले हिसाब-किताब चुकाने पर आमादा है।

इसी का परिणाम है गतिरोध, जिसमें कोई भी पक्ष अपनी जमीन छोड़ने को तैयार नहीं है। वैसे यह स्थिति एक दिन में नहीं बन गई है। 2004 से 2014 के बीच जब यूपीए सरकार सत्ता में थी, तो भाजपा ने सदन में व्यवधान को एक बेहतरीन रणनीति बना दिया था।

लोकसभा में सुषमा स्वराज और राज्यसभा में अरुण जेटली ने संसद में व्यवधान को लोकतांत्रिक व्यवहार का हिस्सा बताकर उचित भी ठहराया था। जब 2014 में भाजपा सत्ता में आई, तो कमजोर विपक्ष ने भी इसी तरह के व्यवधानकारी हथकंडे अपनाने की कोशिश की, लेकिन तब उसकी संख्या कम थी और भाजपा अजेय थी।

इसका असर संसदीय कार्यवाही की असहनीय सार्वजनिक अवमानना के रूप में सामने आ रहा है। जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण विपक्ष की लगातार नारेबाजी और हंगामे में डूब गया, वह निंदनीय है, खासकर तब जब विपक्ष के नेता के रूप में राहुल गांधी के पहले भाषण को निष्पक्ष सुनवाई मिली थी।

संसद को निष्क्रिय बना दिया गया है, और इससे लोगों की वास्तविक चिंताओं का समाधान देने की उसकी क्षमता पर गंभीर संदेह पैदा होने लगा है। संसद को प्रासंगिक बने रहने के लिए अपने आपसी झगड़ों से ऊपर उठकर तात्कालिक और सार्वजनिक महत्व के राष्ट्रीय मुद्दों से सामूहिक रूप से निपटना चाहिए।

संसदीय नियम इसकी अनुमति देते हैं। लोकसभा में अध्यक्ष की सहमति से सार्वजनिक महत्व के किसी मामले पर चर्चा के लिए सदन के नियमित कामकाज को स्थगित करने का प्रावधान है। वहीं राज्यसभा में, राष्ट्रीय महत्व के किसी मुद्दे पर चर्चा के लिए सूचीबद्ध कामकाज को निलंबित करने के लिए नियम 267 के तहत एक नोटिस है।

फिर क्यों लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति ने विपक्ष के उस वैध अनुरोध को अस्वीकार कर दिया, जिसमें राष्ट्रपति के संसद में दिए गए प्रथम अभिभाषण पर रूटीन बहस को स्थगित कर नीट में पेपर-लीक के अत्यंत संगीन मुद्दे पर चर्चा करने की बात कही गई थी?

इस साल करीब 24 लाख छात्रों ने मेडिकल की पढ़ाई के लिए उपलब्ध सीमित वैकैंसीज़ में किसी तरह जगह पाने के लिए नीट की परीक्षा दी थी। इस परीक्षा के लिए छात्र महीनों तैयारी करते हैं। कई परिवार अपने बच्चों के उत्तीर्ण होने के लिए बेहतरीन कोचिंग और अन्य सुविधाएं सुनिश्चित करने के लिए बहुत कुछ त्याग करते हैं।

पेपर लीक होना भी कोई नई बात नहीं है। पिछले दस सालों में कई महत्वपूर्ण परीक्षाएं- जो हमारे बेरोजगार युवाओं की बढ़ती फौज को रोजगार दे सकती थीं- 70 से अधिक पेपर-लीक के कारण रद्द कर दी गई हैं। इससे करीब दो करोड़ छात्रों का भविष्य प्रभावित हुआ है। इस मामले में त्रुटिहीन परीक्षा आयोजित करने में राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी (एनटीए) की विफलता भयावह है।

क्या दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली के कारण हमारे युवाओं के खतरे में पड़े भविष्य को ‘तात्कालिक सार्वजनिक महत्व’ का मामला नहीं माना जा सकता? अगर प्रधानमंत्री स्वयं इस मामले पर चर्चा करने का प्रस्ताव रखते तो वे छात्रों का अभिवादन पाते। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, और जब विपक्ष ने ऐसा किया तो सदन के दोनों पीठासीन अधिकारियों ने इसे खारिज कर दिया।

हमारी 50% से अधिक आबादी 25 वर्ष से कम की है, वहीं 65% आबादी 35 वर्ष से कम आयु वालों की है। हम जनसांख्यिकी दृष्टि से विश्व के सबसे युवा देशों में से एक होने पर गर्व करते हैं। यदि संसद ने परीक्षा-संकट पर तत्काल चर्चा की होती, तो इससे इन युवाओं का लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास बढ़ता।

दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों को विपक्ष के जायज अनुरोधों को पूरा करने के लिए दलगत राजनीति से ऊपर उठना चाहिए। अतीत में मणिपुर जैसे संवेदनशील सीमावर्ती राज्य में स्थिति पर तत्काल चर्चा करने के लिए भी इसी प्रकार के अनुरोध को ठुकरा दिया गया था। आम नागरिकों के सामने प्रश्न यह है कि संसद में अदूरदर्शी वैरभाव कब तक लोगों की ज्वलंत चिंताओं को दबा सकता है?

लोकसभा में अध्यक्ष की सहमति से सार्वजनिक महत्व के किसी निश्चित मामले पर चर्चा करने के लिए सदन के नियमित कामकाज को स्थगित करने का प्रावधान है। फिर नीट में पेपर-लीक पर चर्चा क्यों नहीं की जा सकी?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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