Monday, November 3

विधायक बदले, सांसद बदले, सरकारें बदलीं… लेकिन नहीं बदली झरिया की किस्मत, आज भी बूंद-बूंद पानी को तरसते हैं लोग

धनबाद। देश की कोयला राजधानी झरिया, जहां धरती के नीचे काले हीरे (कोयला) का अपार भंडार है, वहीं ऊपर रहने वाले लोग बूंद-बूंद पानी के लिए तरसने को मजबूर हैं। दशकों से चली आ रही जल संकट की समस्या आज भी जस की तस है। विधायक बदले, सांसद बदले, यहां तक कि सरकारें भी बदलती रहीं, लेकिन झरिया के लोगों की किस्मत नहीं बदली।

झरिया में जलापूर्ति व्यवस्था सुधारने के लिए झरिया माइंस बोर्ड, माडा और बाद में झमाडा जैसी संस्थाएं बनीं, लेकिन पानी की समस्या खत्म होने के बजाय और गहराती गई।

राजनीतिक विरासत भी नहीं बुझा सकी प्यास
झरिया से अब तक कई नेता विधायक रह चुके हैं। सूर्यदेव सिंह चार बार विधायक रहे, उनकी पत्नी, बेटे और बहू तक इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। फिलहाल उनकी बहू रागिनी सिंह झरिया से विधायक हैं। उनसे पहले सूर्यदेव सिंह के भाई बच्चा बाबू भी विधायक रह चुके हैं। सभी ने चुनावों में पानी की समस्या को मुद्दा बनाया और समाधान का वादा किया, पर जनता को सिर्फ आश्वासन ही मिला।

संयुक्त बिहार के दौर में आबो देवी यहां से विधायक और मंत्री रहीं, जबकि झारखंड बनने के बाद बच्चा सिंह नगर विकास मंत्री बने — बावजूद इसके झरिया की प्यास आज तक नहीं बुझी।

छह दिनों से ठप है पानी की सप्लाई
फिलहाल झरिया में पिछले छह दिनों से पानी की आपूर्ति पूरी तरह ठप है। न विभाग के पास ठोस जानकारी है और न ही जनप्रतिनिधियों के पास कोई जवाब।
लोगों का कहना है कि छठ जैसे पावन अवसर पर भी पानी नहीं मिला। तकनीकी खराबी और बिजली गुल रहने के कारण जलमीनार में पानी नहीं भरा जा सका। शुक्रवार को सप्लाई बहाल होने का दावा किया गया, लेकिन शनिवार तक भी नल सूखे रहे।

महीने में सिर्फ 10 से 12 दिन ही आता है पानी
झरिया में यह कोई नई बात नहीं। यहां हर महीने सिर्फ 10 से 12 दिन ही पानी की आपूर्ति होती है, बाकी समय लोग निजी टैंकर या हैंडपंप के सहारे गुजर-बसर करते हैं। कभी दामोदर नदी में जलस्तर कम होता है, कभी पाइपलाइन फट जाती है, तो कभी बिजली की आपूर्ति बाधित हो जाती है।

कोयले की राजधानी, पर बुनियादी सुविधाओं से वंचित
विडंबना यह है कि झरिया देश की ऊर्जा जरूरतें पूरी करता है, लेकिन यहां के लोग आज भी पानी की एक बाल्टी के लिए लाइन में लगते हैं। सुबह-सुबह लोग काम-काज छोड़कर पानी के जुगाड़ में लग जाते हैं।

झरिया की कहानी सिर्फ पानी की नहीं, बल्कि एक प्रणालीगत असफलता का प्रतीक बन चुकी है — जहाँ विकास के तमाम दावे धूल फांक रहे हैं और जनता आज भी हर दिन यह सवाल दोहराने को मजबूर है —
“क्या झरिया की प्यास कभी बुझ पाएगी?”

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