
पटना, संवाददाता।
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के बीच सूर्यगढ़ा विधानसभा सीट इस बार सबसे दिलचस्प मुकाबलों में से एक बन गई है। यहां मुकाबला न केवल एनडीए और महागठबंधन के बीच है, बल्कि एक निर्दलीय भूमिहार उम्मीदवार रविशंकर प्रसाद उर्फ अशोक सिंह के उतरने से यह जंग त्रिकोणीय संघर्ष में बदल गई है। यही कारण है कि अब यह सीट केंद्रीय मंत्री ललन सिंह के लिए भी प्रतिष्ठा की परीक्षा बन चुकी है।
जेडीयू में सीट बंटवारे से फंसा पेच
सूर्यगढ़ा सीट पहले से ही सुर्खियों में थी, जब नीतीश कुमार के करीबी माने जाने वाले प्रह्लाद यादव, जिन्होंने हाल ही में राजद छोड़ जदयू का दामन थामा था, को टिकट नहीं दिया गया। बताया जाता है कि ललन सिंह के कड़े विरोध के कारण यह सीट किसी अन्य उम्मीदवार को दे दी गई।
इस फैसले के बाद पार्टी के भीतर असंतोष बढ़ा और इलाके में समीकरण बदल गए। जेडीयू ने अब रामानंद मंडल को उम्मीदवार बनाया है, जबकि राजद ने प्रेम सागर को मैदान में उतारा है।
ललन सिंह बनाम जनता का उम्मीदवार
केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह के लिए यह सीट इसलिए अहम है क्योंकि इसे उन्होंने अपनी साख का सवाल बना लिया है। ललन सिंह ने स्पष्ट कहा कि “लखीसराय का आतंक किसी भी कीमत पर टिकट नहीं पाएगा।”
पर राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस निर्णय ने स्थानीय राजनीति में एक निर्दलीय लहर को जन्म दिया है। जनता अब यह तय करना चाहती है कि उसे पार्टी का प्रत्याशी चाहिए या जनता से जुड़ा स्वतंत्र उम्मीदवार।
सूर्यगढ़ा का इतिहास: निर्दलीयों को नकारा नहीं गया
सूर्यगढ़ा विधानसभा का इतिहास बताता है कि यहां निर्दलीय उम्मीदवारों को जनता ने कई बार सिर-आंखों पर बिठाया है।
- 1977 में रामजी मंडल ने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में CPI की सुनैना शर्मा को एक लाख से ज्यादा वोटों से हराया था।
- 1995 में प्रह्लाद यादव ने भी निर्दलीय रहते हुए चुनाव जीता था।
अब 2025 में रविशंकर प्रसाद सिंह उर्फ अशोक सिंह उसी परंपरा को दोहराने की कोशिश में हैं।
जातीय समीकरण: भूमिहारों का झुकाव किस ओर?
सूर्यगढ़ा का चुनाव पूरी तरह सोशल इंजीनियरिंग पर टिका है।
यहां सबसे बड़ी आबादी भूमिहार और कुर्मी जाति की है, जबकि यादव मतदाता भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं। इस बार दिलचस्प यह है कि जेडीयू का उम्मीदवार कुर्मी है और राजद का यादव, लेकिन किसी भी प्रमुख दल ने भूमिहार समुदाय को टिकट नहीं दिया।
इसी वजह से भूमिहार मतदाता अब निर्दलीय रविशंकर प्रसाद सिंह की ओर झुकते नजर आ रहे हैं।
अशोक सिंह की बढ़ती पकड़
रविशंकर प्रसाद सिंह उर्फ अशोक सिंह 2020 में हार के बावजूद पिछले पांच वर्षों से क्षेत्र में लगातार सक्रिय रहे हैं। उन्होंने गांव-गांव जाकर जनता से जुड़ाव बनाया है, जिसके कारण हर जाति में उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है।
विशेषज्ञों का कहना है कि अगर भूमिहार वोटर पूरी तरह उनके पक्ष में एकजुट हुए, तो यह सीट एनडीए और महागठबंधन दोनों के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती है।
राजनीतिक विश्लेषण: जीत उस की, जो सेंध लगाए
सूर्यगढ़ा में इस बार मुकाबला जातीय संतुलन और व्यक्तिगत छवि दोनों पर आधारित है।
यहां जो उम्मीदवार अपने विरोधी की जाति के वोटों में सेंधमारी कर पाएगा, वही जीत की दहलीज तक पहुंचेगा।
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या जनता इस बार पारंपरिक दलों से आगे बढ़कर किसी निर्दलीय “जनता के आदमी” को मौका देती है या नहीं।
निष्कर्ष:
सूर्यगढ़ा विधानसभा सीट इस बार सिर्फ एक राजनीतिक मुकाबला नहीं, बल्कि जनता बनाम दलीय राजनीति की परीक्षा बन चुकी है।
यहां की हवा इशारा कर रही है कि अबकी बार वोट पर्चे पर नहीं, चेहरे पर पड़ेगा।