भाग गए बापू के बंदर — एक तंज भरी सच्चाई
लेखक: निर्मल असो
आज का भारत महात्मा गांधी को सिर्फ उन क्षणों में याद करता है, जब कोई "बंदर" सार्वजनिक जीवन में उछलकूद मचा देता है। यह विडंबना ही है कि गांधी की विचारधारा पर चलने का दावा करने वाले लोग उन्हीं के आदर्शों की धज्जियां उड़ाते हैं। उनकी हत्या के दशकों बाद भी बापू की आत्मा कभी टीवी डिबेट में कठघरे में खड़ी कर दी जाती है, तो कभी नए-नए तर्कों की ढाल बनाकर उनके नाम का इस्तेमाल कर लिया जाता है।
गांधी के तीन प्रतीकात्मक बंदर—"बुरा मत बोलो, बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो"—आज शायद खुद भ्रमित हैं। देश में बोलने वालों की फौज है, पर सुनने वाले नहीं। देखने को बहुत कुछ है, मगर सच को देखने की दृष्टि नहीं। कान लाखों हैं, पर सुनाने को जुबान कोई नहीं।
तीनों बंदर अब सोच रहे हैं कि क्या वे बूढ़े हो गए, या देश समय से पहले बूढ़ा हो गया? लोकतंत्र भी उसी तरह मौन, अंधा और बहरा होता दिख रहा है जैसे ...