दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : एआई औजार बना सकता है अदालती फैसलों को कुछ अधिक इंसानियत से भरे…

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अदालतों में जमानत के इंतजार में महीनों और बरसों खड़े हुए ऐसे लोग रहते हैं जो अपने मामलों में फैसलों, या सुनवाई शुरू होने के इंतजार में जेलों में बंद रहते हैं। हिन्दुस्तान में कुछ कानून तो ऐसे कड़े बनाए गए हैं कि उनके तहत सरकार लोगों को बरसों से जेल में बंद रखे हुए है, लेकिन जमानत नहीं हो पा रही है, और न ही सुनवाई शुरू हुई है। सुप्रीम कोर्ट जमानत को लेकर जिला अदालतों, और हाईकोर्ट को भी पिछले कुछ हफ्तों में बहुत कुछ कह चुका है। देश की सबसे बड़ी अदालत ने अलग-अलग मामलों में कई तरह की नसीहतें दी हैं। एक मामले में उसने यह कहा कि बेल हक होता है, और जेल अपवाद होना चाहिए। कुछ दूसरे मामलों में उसने यह कहा कि निचली अदालत ने अगर किसी को जमानत दी है, तो उसे रद्द करने के पहले हाईकोर्ट को बहुत सी बातें सोचना चाहिए। अब कल उसने पटना हाईकोर्ट के एक जमानत आदेश को खारिज किया जिसमें अदालत ने अंधाधुंध कड़ी शर्तें लगा दी थीं। हाईकोर्ट ने पति को जमानत देते हुए यह कहा था कि वह पत्नी की सभी शारीरिक और वित्तीय जरूरतों को पूरा करेगा। इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा कि यह देखकर दुख हो रहा है कि जमानत के लिए कठोर शर्तें रखने की प्रथा को निंदा करने वाले सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों के बावजूद हाईकोर्ट इस तरह के आदेश दे रहे हैं जिन पर कोई अमल भी नहीं हो सकता। जाहिर है कि हाईकोर्ट की इस जमानत में रखी गई शर्त कि पत्नी की हर शारीरिक जरूरत को पति पूरा करेगा, सुप्रीम कोर्ट ने असंभव माना। और ऐसे शर्तों वाला जमानत आदेश खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अमल होने लायक शर्तें ही लगाई जानी चाहिए। आदेश में यह भी याद दिलाया कि जमानत की शर्तें जांच में आरोपी की मौजूदगी की गारंटी के लिए ही लगती हैं ताकि सुनवाई ठीक से हो सके।

अब अगर हम हिन्दुस्तान की आबादी को देखें, तो तीन चौथाई लोग तो जिले में भी अदालती मामले का खर्च नहीं उठा सकते। शायद पांच-दस फीसदी आबादी हाईकोर्ट तक जाने का हौसला कर सकती है। और हमें नहीं लगता कि एक फीसदी से अधिक आबादी किसी भी हालत में सुप्रीम कोर्ट की दहलीज पर पांव धरने का दुस्साहस कर सकती है। ऐसे में अगर सुप्रीम कोर्ट को देश की बाकी अदालतों को दिए गए अपने मार्गदर्शन को इस तरह बार-बार दुहराना पड़ रहा है, तो उसका मतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के खिलाफ जाकर नीचे की अदालतें जनता के साथ बेइंसाफी कर रही हैं, और भला ऐसे कितने लोग होंगे जो कि हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जा सकेंगे? यह नौबत तकलीफदेह इसलिए है कि अदालतों में सरकारों और बड़े कारोबारियों, दो नंबरियों, और दस नंबरियों के अलावा और किसी की तो ताकत रहती नहीं है कि नीचे से ऊपर तक अदालती लड़ाई लड़ सकें, और ऐसे में यह नौबत आना ठीक नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट अपने फैसलों के खिलाफ निचली अदालतों के फैसलों को सुधारने में वक्त जाया करे।

यहां पर हमें एक छोटी सी राह दिखती है। इन दिनों भारत में भी बहुत से वकील आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का इस्तेमाल करके अदालत के लिए ड्राफ्ट तैयार करते हैं क्योंकि एआई से कम्प्यूटर-इंटरनेट पर दर्ज पुराने सभी फैसले और आदेश का विश्लेषण करके उसके मुताबिक किसी नए केस में ड्राफ्ट तैयार किया जा सकता है। जिस काम में बहुत से वकील लगेंगे, या उनके बहुत से दिन लगेंगे, उस काम को एआई बड़ी तेजी से कुछ मिनटों में सामने रख सकता है, और फिर उसकी जांच-परख वकील अपनी मानवीय समझ से कर सकते हैं। जब ऐसा इस्तेमाल आज हो ही रहा है, तो भारतीय न्याय व्यवस्था को ऐसे एआई औजार बनाने चाहिए जो कि हर अदालत को किसी फैसले को लिखते वक्त पहले की तमाम नजीरों को भी सामने रख सकें। ये औजार हर अदालत को यह भी सुझा सकते हैं कि ऐसे मामलों में उनसे बड़ी किन अदालतों के क्या फैसले रहे हैं। ये एआई टूल्स सुप्रीम कोर्ट जजों को भी बता सकते हैं कि उनकी और अधिक जजों की बेंच ने इस तरह के किसी मामले में पहले क्या फैसले दिए हैं। एआई के ऐसे इस्तेमाल से हो सकता है कि वकीलों में कुछ बेरोजगारी आए, लेकिन इससे यह फायदा भी हो सकता है कि बड़ी अदालतों के पिछले फैसलों को अनदेखा करते हुए अभी अगर कोई जज उनके खिलाफ नए फैसले लिखते हैं, तो वे ऐसी गलती से बचेंगे, और उनके इन ताजा फैसलों के खिलाफ अपील से अदालतों पर बोझ बढऩे से बचेगा। आज भी हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट में जज या जजों को जब लगता है कि उन्हें किसी मदद की जरूरत है, तो वे किसी काबिल वकील को न्यायमित्र नियुक्त करते हैं। जजों और वकीलों को कानूनी सहायकों की सहूलियतें भी हासिल रहती है जो बड़ी अदालतों के पुराने फैसलों की मिसालें निकालकर सामने रखते हैं। ऐसे में एआई को एक औजार की तरह इस्तेमाल करना अदालत का वक्त भी बचाएगा, और गलतियों को भी घटाएगा। आज हालत यह है कि किसी जज के गलत फैसले से अगर लोगों की जिंदगी के कई बरस जेल में गुजर जाते हैं, तो उसके लिए किसी भरपाई का इंतजाम नहीं है। इसलिए अदालतों को अधिक से अधिक सावधानी बरतने के लिए बिना किसी खर्च वाले ऐसे एआई औजार मुहैया कराए जाने चाहिए।

दूसरी एक बात यह कि देश की सरकार को यह सोचना चाहिए कि जिन गरीब लोगों के कई-कई बरस जेल में गैरजरूरी तरीके से बर्बाद हो जाते हैं, सुप्रीम कोर्ट तक मामला पहुंचकर यह पाया जाता है कि किसी व्यक्ति के जेल में बंद पिछले 11 बरस गलत फैसले की वजह से थे, तो ऐसे मामलों में उन्हें मुआवजा देने के लिए सरकार की कोई योजना आनी चाहिए। या तो सरकार न्यायिक मुआवजा फंड जैसी कोई तरकीब निकाले जिससे कि कम से कम गरीब लोगों की भरपाई हो सके, या फिर वह फसल बीमा, स्वास्थ्य बीमा की तरह अदालती न्याय बीमा जैसा कुछ शुरू करे, और किसी व्यक्ति के जेलों में गुजारे गए गैरजरूरी या नाजायज दिनों का मुआवजा उसे मिल सके। जनकल्याणकारी सरकार को इस बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए क्योंकि जो व्यक्ति खुद अपनी मेहनत से कमाते हैं, उनके जेलों में रहने पर उनका कोई विकल्प तो परिवार के पास नहीं रहता। किसी कारोबारी के जेल में रहने पर परिवार के दूसरे लोग शायद कारोबार को कम या अधिक हद तक चला पाएं।

यहां पर यह आखिरी सलाह देने का मकसद यह है कि मौजूदा चीफ जस्टिस थोड़ी सी मानवीय संवेदना के साथ सोचने-समझने वाले इंसान दिखते हैं, और उन्हें खुद ही एक जनहित याचिका की तरह इस मामले को दर्ज करके केन्द्र और राज्य सरकारों को नोटिस जारी करना चाहिए, और उनकी राय लेनी चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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