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- N. Raghuraman’s Column How To Talk To Children About Fear inducing Events?
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
बुधवार की रात मेरे चचेरे भाई- जो अपनी पत्नी के साथ विदेश में हैं- ने मुझे फोन करके पूछा कि क्या मैं मुंबई में उनके घर जा सकता हूं, ताकि कुछ समय के लिए उनके 13 और 11 साल के बच्चों से मिल सकूं? वायनाड में हुई त्रासदी के बाद से उनका बड़ा बेटा सदमे में था। स्थिति तब और जटिल हो गई, जब वह अपने छोटे भाई को लेकर अचानक बहुत सुरक्षात्मक हो गया।
जब बिहार से एक और खबर उसके मोबाइल पर आई कि सुपौल जिले के त्रिवेणीगंज में एक सनसनीखेज घटना में लालपट्टी के एक निजी स्कूल में नर्सरी कक्षा के छात्र ने तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले 10 वर्षीय छात्र को गोली मार दी तो उसने उसे स्कूल न जाने की हिदायत दे डाली। बड़े बेटे ने नौकरों को कमरे पर दस्तक देने के बाद ही भीतर आने के निर्देश देना शुरू कर दिया था।
चूंकि मैं काम के सिलसिले में महाराष्ट्र के जलगांव में था, इसलिए मेरी पत्नी वहां पहुंचीं और हमने चर्चा की कि इस तरह की त्रासदियों के बारे में बच्चों से कैसे बात की जाए। हम जानते थे कि बच्चों के पास हममें से अधिकतर वयस्कों से ज्यादा जानकारी होती है, लेकिन किसी ने भी उनसे बातचीत शुरू नहीं की थी।
इसलिए जब मेरी पत्नी वहां गईं, तो वे दरवाजे की घंटी बजाने के बावजूद बाहर नहीं आए। तभी मेरी पत्नी को अहसास हुआ कि बच्चों को लगता है उनका बंद बेडरूम ही उनका ‘सुरक्षित स्थान’ है। उन्होंने पहले बच्चों को अपनी बात कहने की अनुमति दी।
बड़े बेटे ने शुरू किया, ‘आंटी, क्या आपको पता है कि इस देश में एक किंडरगार्टन का बच्चा भी बंदूक लेकर किसी को भी गोली मार सकता है?’ वह कई और बातें कहता रहा, जो सच नहीं थीं। मेरी पत्नी ने शांति से कहा, ‘चूंकि अंकल मीडिया में काम करते हैं, इसलिए क्या हम उनसे उन सभी बातों के बारे में पूछ सकते हैं, जो तुम कह रहे हो? उन्हें बेहतर जानकारी होगी।’ बच्चे सहमत हो गए और मैं उनके साथ ऑनलाइन बातचीत में शामिल हो गया।
बाद में मैंने उन्हें सुझाव दिया कि वे एक ड्राइव पर जाएं, क्योंकि मुझे पता था कि कार ड्राइव अक्सर मुश्किल बातचीतों के लिए एक शानदार उपाय होती है, खासकर बच्चों के साथ। क्योंकि आप कमरे में सोफे पर बैठने की तुलना में कार में उनके ज्यादा करीब होते हैं।
जब वे डरे हुए महसूस करते हैं तो आप उन्हें गले लगा सकते हैं और चूम सकते हैं। मेरी आवाज कार में लगे रेडियो से जुड़ी हुई थी और मैंने उनसे बात करना शुरू कर दिया। मुझे पता था कि डर आसानी से बढ़ जाता है।
जब हम डर पैदा करने वाली बातें सुनते हैं तो हमारा शरीर हमें सुरक्षित रखने के लिए डर की प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करता है। यह ठीक वैसा ही है, जैसे किसी कार दुर्घटना के बाद कार में प्रवेश करने का प्रयास करना और हमारे शरीर का हमसे कहना कि ‘मैं अंदर नहीं जा सकता।’
चिंतित बड़े बेटे ने अनुरोध किया कि वह रात को हमारे घर में आकर रहना चाहता है। मुझे पता था कि अगर मैं उसकी चिंता के प्रति सदाशयता जतलाता, तो मैं अनजाने में उसके डर को और मजबूत कर देता। उसे ‘हां’ कहने पर यह सूक्ष्म संदेश जाता कि जब वे अकेले होते हैं तो जोखिम में होते हैं।
बड़े बेटे की एंग्जायटी उसे बता रही थी कि ‘उसके और उसके भाई के साथ कुछ भयानक होने वाला है’ और ऐसे में तर्क काम नहीं आता। मैंने उन्हें बताया कि कुछ डर क्यों आधारहीन होते हैं और उनके अनुपातहीन डर पर काबू पाने में उनकी मदद की। पूरी बातचीत के दौरान हमने इस बात पर जोर दिया कि वे सुरक्षित हैं।
मेरी पत्नी ने उन्हें सांत्वना देने के लिए कार में उन्हें कसकर पकड़ रखा था। एंग्जायटी की स्थिति में बच्चे आम तौर पर भाग उठते हैं। तब मैंने उन्हें बताया कि जब वास्तव में कोई खतरा न हो, तब भागकर वे कुछ सकारात्मक और मूल्यवान करने का अवसर खो रहे होते हैं। अंततः बच्चों ने कहा कि वे अपने ही घर में सोएंगे, और मेरी पत्नी ने उनसे वादा किया कि वे गुरुवार की सुबह नाश्ते के लिए उन्हें आकर ले जाएंगी।
फंडा यह है कि पैरेंट होने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा यह है कि हम अपने बच्चों की खतरे की स्थिति का सामना करने में किस तरह से मदद करते हैं।
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