डेरेक ओ ब्रायन का कॉलम: कैंसर के बाद का जीवन भी जीने लायक हो सकता है

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1 घंटे पहले

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डेरेक ओ ब्रायन लेखक सांसद और राज्यसभा में टीएमसी के नेता हैं - Dainik Bhaskar

डेरेक ओ ब्रायन लेखक सांसद और राज्यसभा में टीएमसी के नेता हैं

शुक्रवार की सुबह बिताने के कई तरीके हो सकते हैं। सुबह 9 से 11 बजे तक आप फोन से चिपके रह सकते हैं, ट्रैफिक में फंसे होने के दौरान तरह-तरह के टेक्स्ट मैसेज भेज सकते हैं या बैठकखाने में कलफ की गई लिनन शर्ट पहन बैठ सकते हैं, ताकि गूगल टीम्स पर कॉल के लिए चाक-चौबंद दिखेंं। या यूट्यूब ‘शॉर्ट्स’ देखते हुए किसी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी की गलती का आनंद ले सकते हैं, या किसी आग्रहपूर्ण व्यक्ति के फोन पर विनम्र होने का दिखावा कर सकते हैं।

लेकिन पिछले महीने ऐसी ही एक शुक्रवार सुबह को मैंने एक अप्रत्याशित स्थान पर ढाई घंटे बिताए। यह न्यूयॉर्क में मेमोरियल स्लोन केटरिंग कैंसर सेंटर में डेविड एच. कोच सेंटर फॉर कैंसर केयर का रिसेप्शन एरिया था।

मेरे एक दोस्त की 59 वर्षीय पत्नी में हाल ही में स्टेज-4 मेटास्टेटिक नॉन-स्मॉल सेल लंग कैंसर का पता चला था, जो पिंडलियों की मांसपेशियों तक फैल गया था। मैं पत्नी सहित अपने दोस्तों के साथ था। उनकी एक ऑन्कोलॉजिस्ट- जो कि लार्ज सेल कैंसर के विशेषज्ञ थे- के साथ पहली अपॉइंटमेंट थी।

मरीज, उनके पति और मेरी पत्नी टोनुका दो घंटे से भी अधिक समय तक उन विशेषज्ञ के साथ रहे। मैंने बैठने के लिए उस प्रतिष्ठित संस्थान के मुख्य प्रवेश द्वार के ठीक अंदर एक अकेला सोफा चुना और अपने फोन को साइलेंट करके जेब में रख दिया। उस सुबह मैं केवल अपने मन पर ही तस्वीरें अंकित करना चाहता था।

मेरे ठीक सामने एक अन्य सोफे पर एक दम्पती थे, जिनकी उम्र 70 या शायद 80 के पार थी। वे अपनी पहली डेट पर आए कॉलेज स्टूडेंट्स की तरह उत्साह से बातें कर रहे थे। जाहिर है कि उनमें से एक को कैंसर था, लेकिन मैं नहीं बता सकता कि किसे।

वहां एक व्हीलचेयर पर बैठी एक मां भी थीं, जो फोन पर अपने बेटे पर चिल्ला रही थीं। उसे आने में देर हो गई थी, इसलिए उन्होंने अपनी अपॉइंटमेंट के लिए खुद ही ऊपर जाने का फैसला कर लिया था। मैंने इसके अलावा और किसे देखा? चंद बेनाम कहानियां।

एक व्यक्ति, जिनका केयरटेकर उनका सहकर्मी, पड़ोसी या दोस्त हो सकता था। या उम्र की पांचवीं दहाई में मौजूद एक स्टाइलिश-कपल, जिन्हें देखकर लगता था कि वे हवाई के किसी समुद्र तट पर छुट्टियां मना रहे थे, जबकि वे मैनहट्टन में डॉक्टर से मिलने के लिए चेक-इन कर रहे थे।

इस विषय पर सिद्धार्थ मुखर्जी से बेहतर कोई नहीं लिख सकता, जिन्होंने ‘द एम्परर ऑफ ऑल मैलेडीज : अ बायोग्राफी ऑफ कैंसर’ नामक पठनीय किताब लिखी है। मुखर्जी लिखते हैं, ‘लेकिन ल्यूकेमिया कैंसर की कहानी डॉक्टरों की नहीं, मरीजों की कहानी है, जो संघर्ष करते हैं, बीमारी से होकर गुजरते हैं और जीवित रहते हैं। जिन गुणों के लिए महान चिकित्सकों का अभिवादन किया जाता है, वो पहले उन लोगों द्वारा प्रदर्शित किए जाते हैं, जो बीमारी से जूझते हैं।’

भारत में कैंसर की हकीकत से जुड़े कुछ बिंदु इस प्रकार हैं : भारत में हर नौ में से एक व्यक्ति को अपने जीवनकाल में कैंसर का सामना करना पड़ता है। 2022 में कैंसर के नए मामलों की अनुमानित संख्या 14.6 लाख थी। हृदय संबंधी बीमारियों के बाद, कैंसर भारत में मृत्यु का सबसे प्रमुख कारण बन गया है।

देश में हर आठ मिनट में एक महिला की सर्वाइकल कैंसर से मृत्यु होती है। वे ब्रेस्ट कैंसर से भी बहुत संघर्ष करती हैं। पुरुषों को प्रभावित करने वाले सबसे आम कैंसर फेफड़े और मुंह के हैं। लिम्फोइड ल्यूकेमिया चौदह वर्ष से कम उम्र के बच्चों को भी ग्रस्त कर लेता है।

कैंसर के प्रमुख कारणों में से एक तंबाकू का सेवन है, जो पुरुषों में 50% और महिलाओं में 17% कैंसर के मामलों से जुड़ा है। हर दिन 3700 लोग तंबाकू से संबंधित बीमारियों से मरते हैं। भारत में पाए जाने कैंसर में से चार प्रतिशत ऐसे हैं, जो बच्चों को प्रभावित करते हैं।

कैंसर के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए पहला संचार अभियान 1978 में ओगिल्वी एंड मैथर द्वारा भारतीय कैंसर सोसायटी के लिए चलाया गया था। जैसा कि डेविड ओगिल्वी ने ‘ओगिल्वी ऑन एडवरटाइजिंग’ में लिखा है, ‘इस अभियान का उद्देश्य अज्ञानता और भाग्यवाद से ग्रस्त लोगों के दृष्टिकोण को समझ-बूझ और आशावाद में बदलना था।

तभी लोगों को सोसायटी के निःशुल्क क्लीनिकों में नियमित जांच के लिए राजी किया जा सकता था।’ इसके विज्ञापन-अभियान में कैंसर से ठीक हो चुके वास्तविक रोगियों की प्रसन्न तस्वीरें दिखाई गई थीं। तस्वीरों के साथ एक सरल लेकिन शक्तिशाली संदेश लिखा था : ‘कैंसर के बाद का जीवन भी जीने लायक है!’

कैंसर की कहानी डॉक्टरों की नहीं, मरीजों की कहानी है, जो संघर्ष करते हैं, बीमारी से गुजरते हैं और जीवित रहते हैं। जिन गुणों के लिए चिकित्सकों का अभिवादन किया जाता है, वो पहले मरीजों के द्वारा प्रदर्शित किए जाते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं। इस लेख के सहायक शोधकर्ता आयुष्मान डे हैं)

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