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16 घंटे पहले
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सही है, ऐसी त्रासदियों को राजनीतिक रंग तो नहीं ही दिया जाना चाहिए। ऐसी त्रासदियाँ प्रशासन और व्यवस्थापकों की लापरवाही तथा आयोजकों के अंधेपन के कारण होती हैं। हाथरस के पास एक गाँव में हुई इस त्रासदी के बारे में एसडीएम कह रहे हैं कि अनुमति केवल पचास हज़ार लोगों की माँगी थी, जबकि आ गए 80-90 हज़ार।
ठीक है, एसडीएम ही सही होंगे तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या पचास हज़ार लोगों के हिसाब से भी आपने इंतज़ाम किए थे क्या? केवल 72 पुलिस वाले ड्यूटी पर तैनात थे। फिर पचास हज़ार से ज़्यादा लोग आए तब प्रशासन सो क्यों रहा था? छोटे से गाँव में इतने ज़्यादा लोग आए और प्रशासन को भनक ही नहीं लगी? उन्हें किसी अलग स्थान पर रोका क्यों नहीं गया?
भगदड़ के बाद लोग अपने परिवार के घायल सदस्यों को लेकर अस्पताल भागते दिखे।
जहां तक पुलिस का सवाल है, वह तो एसडीएम के बयान को भी झुठला रही है। पुलिस का कहना है कि आयोजकों ने जिस पत्र पर कार्यक्रम की अनुमति माँगी थी, उस पर लोगों की संख्या के बारे में कुछ नहीं लिखा था। स्थान ख़ाली छोड़ दिया गया था। अब पुलिस को सही मानें तो बिना संख्या जाने उसने कार्यक्रम की अनुमति कैसे दे दी?
भगदड़ मचने का कारण तो और भी भयावह है। कहा जा रहा है कि बाबा भीड़ में से निकल रहे थे और लोग उनके चरण छूने दौड़ रहे थे। सही तो यह है कि बाबा को भीड़ में से निकालने के लिए सेवादारों ने लोगों को धक्का दिया। इसी बीच कोई गिर गया और इधर- उधर दौड़ने के चक्कर में भगदड़ मच गई।
यह हाथरस का फुलरई गांव का सत्संग स्थल है, जहां भगदड़ से 122 लोगों की मौत हुई।
जिस हॉल में कार्यक्रम था, वह लोगों के हिसाब से बहुत छोटा था। ठीक है, किसी की श्रद्धा पर सवाल नहीं उठाया जा सकता लेकिन इन बाबाओं के भीड़ वाले कार्यक्रम खुले मैदान में क्यों नहीं करवाए जाते? प्रशासन इन्हें साफ- साफ़ क्यों नहीं कहता कि कार्यक्रम करना हो तो खुले मैदान में कीजिए, वरना नहीं।
ऐसा क़ानून क्यों नहीं बनता कि इस तरह की त्रासदी हो तो आयोजकों के साथ इन बाबाओं को भी ज़िम्मेदार माना जा सके। हालाँकि उत्तरप्रदेश सरकार हाथरस हादसे के आयोजकों पर ग़ैर इरादतन हत्या का मामला दर्ज कर रही हैं।
सवाल यह है कि राज्य सरकार, पुलिस और प्रशासन, सभी की चेतना किसी बड़े हादसे या त्रासदी के बाद ही जागृत क्यों होती है। ऐसे कार्यक्रमों के लिए पहले से पुख़्ता इंतज़ाम क्यों नहीं किए जाते? आख़िर हमारी चेतना को किसी बड़ी त्रासदी का इंतज़ार क्यों रहता है?
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