[ad_1]
- Hindi News
- Opinion
- Barkha Dutt’s Column This Time BJP Will Have To Find A New Narrative
- कॉपी लिंक
बरखा दत्त फाउंडिंग एडिटर, मोजो स्टोरी
इस सप्ताह संसद में जो कुछ हुआ, वह राजनीति में सत्ता के बदलते समीकरणों को दर्शाता है। प्रधानमंत्री को विपक्ष की बेंचों से उठ रहे शोरगुल भरे नारों के बीच अपनी बात कहने के लिए ढाई घंटे तक परेशान होना पड़ा। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर प्रधानमंत्री के उत्तर के दौरान ‘मणिपुर, मणिपुर’ के नारे गूंजते रहे।
इससे पहले भगवान शिव और अन्य धार्मिक नेताओं की तस्वीरों से लैस आक्रामक रुख वाले राहुल गांधी ने कहा था कि भाजपा नेता असली हिंदू नहीं हैं! हालांकि राहुल के लिए उस क्षेत्र में प्रवेश करना जोखिम भरा हो सकता है, जिस पर भाजपा आमतौर पर दावा करती रही है। लेकिन 2024 के चुनाव से पहले ऐसे दृश्य कल्पना से परे थे।
मोदी ने आक्रामक तरीके से इसका जवाब दिया। उन्होंने कांग्रेस पर हमला बोला और अपनी बात को पुष्ट करने के लिए ‘शोले की मौसी’ जैसे हास्यपूर्ण शब्दों का इस्तेमाल किया। लेकिन अपने तीसरे कार्यकाल में मोदी के लिए चुनौती भाषणों की वाक्पटुता नहीं, बल्कि उनका मूल संदेश रहने वाली है।
2014 में मोदी बदलाव की लहर पर सवार थे। वे यथास्थिति को तोड़ने वाले एक आउटसाइडर थे। वे गांधी परिवार की वंशावली और कुलीन पृष्ठभूमि के खिलाफ खुद को प्रभावी ढंग से अलग करने वाले सेल्फ-मेड व्यक्ति थे, जो ‘लुटियंस दिल्ली’ के गिरोह को ध्वस्त करने जा रहे थे।
2019 में, उनका मूल संदेश धुर-राष्ट्रवाद से प्रेरित था। वे सख्त, किसी को भी नहीं बख्शने वाले, जोखिमों से निडर नेता थे। उनके राष्ट्रीय सुरक्षा हस्तक्षेप- सर्जिकल स्ट्राइक, बालाकोट- ने उस व्यक्तित्व की पुष्टि की। लेकिन 2024 में, मोदी को उम्मीद थी कि राम मंदिर और उनकी व्यक्तिगत लोकप्रियता चुनाव जिताने के लिए पर्याप्त होंगे।
इस बार भाजपा सिर्फ बहुमत से ही नहीं पिछड़ी है; बल्कि उसके पास देश को बताने के लिए कोई नई कहानी भी नहीं है। वंशवादी राजनीति पर हमला, जो एक समय बहुत दमदार था, अब दम तोड़ चुका है। प्रियंका गांधी के लोकसभा में प्रवेश करने के साथ ही गांधी परिवार के तीनों सदस्य संसद में होंगे।
50 साल पुरानी इमरजेंसी की याद दिलाना आज किन्हीं वास्तविक भावनाओं को नहीं जगाता। हिंदुत्व से भी अब पहले जितना लाभ नहीं मिलता। देश के युवाओं- जो लीक हुए परीक्षा पत्रों और हेरफेर किए गए परिणामों से पहले ही अलग-थलग पड़ चुके हैं- को अपने से जोड़ने के लिए एक नई स्क्रिप्ट की जरूरत है।
याद रखें, यह एक ऐसा देश है, जहां 65% से ज्यादा लोग 35 से कम उम्र के हैं। क्या वे वाकई अतीत की बहसों में शामिल होंगे या वे दीर्घकालिक भविष्य के दृष्टिकोण के बारे में सुनना चाहेंगे? आज मोदी की भूमिका राहुल गांधी की तुलना में ज्यादा मुश्किल है। राहुल के लिए तो प्रतिपक्षी की भूमिका निभाना बहुत आसान है।
वैसे भी कांग्रेस को 100 से कम ही सीटें मिली हैं और अपने संगठनात्मक ढांचे के पुनर्निर्माण के लिए उसे लंबा रास्ता तय करना है। लेकिन राहुल के कट्टर आलोचकों को भी यह स्वीकार करना होगा कि उन्होंने अपनी योग्यता अर्जित की है।
असफलताओं के एक दशक के दौरान टिके रहने और उपहास व कटाक्ष सुनने के बाद भी हार न मानकर उन्होंने भाजपा के लिए उन्हें नजरअंदाज करना लगभग असंभव बना दिया है। विपक्ष के नेता की अधिकृत भूमिका इसे और भी जटिल बना देती है।
मीडिया में हम जानते हैं कि चाहे हमारा काम कितना भी बड़ा क्यों न हो, हमने कितने ही लंबे समय तक रिपोर्टिंग क्यों न की हो, कितनी ही स्टोरीज़ को कवर क्यों न किया हो, हम अपनी कुछ रिपोर्टिंग में जितने भी नए-नए क्यों न रहे हों, हमें एक सबक पहले ही सिखाया जाता है- आप उतने ही अच्छे हैं, जितनी कि आपकी पिछली स्टोरी।
मोदी की चुनौती यह नहीं है कि अपने सहयोगियों को कैसे मैनेज किया जाए। उनकी चुनौती यह है कि अपने तीसरे कार्यकाल के लिए एक ऐसा शक्तिशाली नैरेटिव या संदेश कैसे खोजा जाए, जिसे सुनकर लोगों को ऐसा न लगे कि इसे तो पहले भी सुना गया है।
इस बार भाजपा सिर्फ बहुमत से ही नहीं पिछड़ी है; बल्कि उसके पास देश को बताने के लिए कोई नई कहानी या नैरेटिव भी नहीं है। वंशवादी राजनीति पर हमला- जो एक समय बहुत दमदार लगता था- अब दम तोड़ चुका है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
[ad_2]
Source link
Discover more from सच्चा दोस्त न्यूज़
Subscribe to get the latest posts sent to your email.