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अम्बिका हीरानंदानी कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से एम-फिल
माइक्रोप्लास्टिक यानी पांच मिलीमीटर से भी छोटे आकार के सूक्ष्म कण चुपके से हमारे पारिस्थितिकी तंत्र के हर पहलू में फैल गए हैं और मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण दोनों के लिए गंभीर खतरा पैदा कर रहे हैं। घरेलू उत्पादों और पैकेजिंग सहित विभिन्न स्रोतों से उत्पन्न होने वाले ये प्रदूषक एक व्यापक संकट को रेखांकित करते हैं, जिस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।
हमारे दैनिक जीवन में- मेलामाइन फोम स्पॉन्ज जैसी हानिरहित वस्तुएं- जो अपनी सफाई की क्षमता के लिए प्रसिद्ध हैं, भी खतरनाक पर्यावरणीय प्रभावों को प्रकट करती हैं। हाल के अध्ययनों से पता चलता है कि ये स्पॉन्ज हर महीने खरबों माइक्रोप्लास्टिक फाइबर छोड़ते हैं, जो जल प्रणालियों में प्रवेश करते हैं और अंततः हमारी खाद्य शृंखला तक पहुंच जाते हैं।
प्रदूषण का यह चक्र एक गंभीर स्वास्थ्य जोखिम पैदा करता है। माइक्रोप्लास्टिक का संबंध इम्यून और एंडोक्राइन सिस्टम में व्यवधान पैदा करने से जोड़ा गया है, जो संभावित रूप से कैंसर का कारण बन सकता है। घरेलू उत्पादों के अलावा, प्लास्टिक पैकेजिंग भी माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण को बढ़ाती है।
यहां तक कि टी-बैग्स जैसी आम चीजें भी अरबों माइक्रोप्लास्टिक छोड़ती हैं, जो हमारी रोजमर्रा की साधारण गतिविधियों में व्याप्त इस बड़ी समस्या को दर्शाता है। इन कणों का मानव ऊतकों में पता लगाया जा चुका है, जिससे पता चलता है कि वे हमारे जैविक तंत्र में घुसपैठ कर चुके हैं और हमारे स्वास्थ्य पर प्रभाव डाल रहे हैं।
इसके उत्तर में शोधकर्ता टिकाऊ और कम प्रदूषणकारी विकल्पों की तलाश कर रहे हैं और उपभोक्ताओं से प्लास्टिक-आधारित वस्तुओं पर निर्भरता कम करने का आग्रह करते हैं। लेकिन इसमें सरकारी हस्तक्षेप सबसे महत्वपूर्ण है।
प्लास्टिक के उपयोग को कम करने के लिए प्रभावी अपशिष्ट प्रबंधन नीतियां अनिवार्य हैं। मलेशिया की प्रति-प्लास्टिक-उपयोग भुगतान नीति से कुछ आशा बंधती है, लेकिन बढ़ते संकट को कम करने के लिए हमें वैश्विक प्रयासों की आवश्यकता है।
माइक्रोप्लास्टिक भारत के मैंग्रोव जैसे महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रों को भी खतरे में डालते हैं। कर्नाटक में कोटा मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र जैसी जगहों पर किए गए अध्ययनों से खतरनाक स्तर के माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण का पता चला है।
यहां माइक्रोप्लास्टिक के रेशे सतही जल पर हावी हो चुके हैं, जैव-विविधता को प्रभावित कर रहे हैं और सी-फूड के माध्यम से मानव स्वास्थ्य के लिए जोखिम पैदा कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) वार्ता में उजागर किए गए प्लास्टिक प्रदूषण के खिलाफ वैश्विक प्रयासों में भारत का रुख महत्वपूर्ण चुनौतियों को रेखांकित करता है।
प्लास्टिक में इस्तेमाल होने वाले रसायनों पर रेगुलेशन लगाने पर बहस चल रही है, जिसमें कुछ लोग ईयू के रीच (आरईएसीएच) ढांचे के समान सख्त वैश्विक मानकों की वकालत कर रहे हैं। भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है। भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) रसायनों सहित विभिन्न उत्पादों के लिए उनकी गुणवत्ता, सुरक्षा और प्रदर्शन सुनिश्चित करने के लिए मानक स्थापित करता है।
हालांकि ये मानक सीधे रीच के जितने व्यापक नहीं हैं, लेकिन वे भारत में रासायनिक सुरक्षा और रेगुलेटरी प्रबंधन में योगदान करते हैं। खतरनाक रसायनों के निर्माण, भंडारण और आयात (एमएसआईएचसी) नियम, 1989, भारत में खतरनाक रसायनों के निर्माण, भंडारण, आयात और निर्यात की निगरानी करते हैं। इनके अनुसार खतरनाक रसायनों को संबंधित अधिकारियों के पास पंजीकृत होना चाहिए और पर्यावरण और स्वास्थ्य जोखिमों को कम करने के लिए सुरक्षा उपायों को लागू किया जाना चाहिए।
दुनिया भर में माइक्रोप्लास्टिक संकट से निपटने के लिए एकजुट वैश्विक कार्रवाई और दृढ़ राष्ट्रीय संकल्प की आवश्यकता है। जहां समाधान मौजूद हैं, वहां उन्हें लागू करने और जहां वे नहीं हैं, वहां उन्हें खोजने की जरूरत है। चाहे ग्लोबल नॉर्थ हो या ग्लोबल साउथ, दुनिया के प्रमुख कॉर्पोरेशन और सरकारों के लिए माइक्रोप्लास्टिक के रेगुलेशन को प्राथमिकता देना महत्वपूर्ण हो गया है, जिससे हमारा सामूहिक अस्तित्व सुरक्षित हो सके।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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