विवाह के झूठे वादों से दुष्कर्म के बढ़ते मामले, न्यायिक फैसलों पर उठ रहे सवाल

नई दिल्ली।SD News Agency हाल के वर्षों में ऐसे मामलों की संख्या बढ़ रही है, जहां विवाह का झूठा वादा कर यौन संबंध बनाने के बाद पुरुष अपने वादे से मुकर जाता है और इस पर महिला द्वारा बलात्कार का मामला दर्ज कराया जाता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, हर साल हजारों ऐसे मामले सामने आते हैं, जिनमें शादी के झूठे वादे के आधार पर बलात्कार के आरोप लगाए जाते हैं।

इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला चर्चा में

हाल ही में, अतुल गौतम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2025) मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आरोपी को जमानत दे दी। अदालत ने कहा कि यदि अभियुक्त ने विवाह का वादा बिना किसी गलत मंशा के किया था और बाद में परिस्थितिवश वह विवाह नहीं कर सका, तो इसे बलात्कार नहीं माना जा सकता। इस फैसले ने कानूनी विशेषज्ञों और महिला अधिकार कार्यकर्ताओं के बीच बहस छेड़ दी है।

बलात्कार और सहमति का जटिल प्रश्न

कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि बलात्कार और सहमति से बनाए गए संबंधों में स्पष्ट अंतर है। यदि कोई व्यक्ति केवल अपनी वासना को शांत करने के लिए विवाह का झूठा वादा करता है, तो यह अपराध की श्रेणी में आएगा। लेकिन यदि किसी कारणवश विवाह संभव नहीं हो सका, तो इसे बलात्कार मानना उचित नहीं होगा।

सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस का उल्लंघन?

अपर्णा भट बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2021) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि न्यायालय को आरोपी और पीड़िता के बीच विवाह को जमानत की शर्त नहीं बनाना चाहिए। लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट के हालिया फैसले पर सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस का उल्लंघन करता है?

कानूनी सुधार और त्वरित न्याय की मांग

विशेषज्ञों का मानना है कि महिलाओं की स्वायत्तता और कानूनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए विधायी संशोधन आवश्यक हैं। कई मामलों में अदालतें विवाह को समाधान के रूप में देखती हैं, जिससे पीड़िता के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन होता है।

महिला संगठनों और कानूनी विशेषज्ञों ने मांग की है कि:

  1. बलात्कार मामलों में त्वरित सुनवाई के लिए फास्ट-ट्रैक कोर्ट को अधिक संसाधन दिए जाएं।
  2. महिलाओं को कानूनी और मानसिक स्वास्थ्य सहायता प्रदान करने के लिए सरकारी योजनाओं का विस्तार किया जाए।
  3. न्यायपालिका में लैंगिक संवेदनशीलता को बढ़ाने के लिए न्यायाधीशों के लिए विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किए जाएं।

यह देखना होगा कि आने वाले समय में न्यायालय इस संवेदनशील विषय पर क्या रुख अपनाता है और क्या सरकार इस संबंध में कोई ठोस कानून बनाने की दिशा में कदम बढ़ाती है।


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