
नई दिल्ली। पश्चिम बंगाल में मतुआ समुदाय इस समय विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) को लेकर गहरी चिंता में है। इस समुदाय की कई झलकियाँ राजनीतिक और सामाजिक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण हैं। हाल ही में तृणमूल कांग्रेस की राज्यसभा सांसद ममता बाला ठाकुर ने SIR के विरोध में 13 दिनों की भूख हड़ताल की थी। वहीं बीजेपी से केंद्रीय मंत्री शांतनु ठाकुर भी मतुआ समुदाय से ही हैं।
मतुआ समुदाय का इतिहास और पहचान
मतुआ समुदाय बंगाली हिंदुओं का दलित वर्ग है, जो पश्चिम बंगाल और आस-पास के इलाकों में बसे हैं। यह समुदाय पश्चिम बंगाल की कुल अनुसूचित जाति आबादी का लगभग 17.4% हिस्सा है। 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम से पहले और बाद में भी लाखों मतुआ धार्मिक उत्पीड़न से बचकर भारत आए।
समाज सुधारक हरिचंद ठाकुर ने 1860 के दशक में मतुआ महासंघ की स्थापना की थी। उनके पुत्र गुरुचंद ठाकुर ने इसे संगठित किया। समुदाय में हरिचंद ठाकुर को भगवान विष्णु और गुरुचंद ठाकुर को भगवान शिव का अवतार माना जाता है।
SIR को लेकर मतुआ समुदाय की चिंता
मतुआ समुदाय का सबसे बड़ा मुद्दा नागरिकता है। दशकों पहले पलायन कर आए कई मतुआ शरणार्थियों के पास अब भी स्पष्ट कानूनी दस्तावेज़ नहीं हैं। SIR प्रक्रिया के तहत उनके नाम मतदाता सूची से हटने का डर उन्हें सताता है।
- दस्तावेजों का अभाव: ज्यादातर मतुआ हिंदू शरणार्थियों के पास 2002 से पहले का निवास प्रमाण नहीं है।
- मतदाता सूची से जोड़ना कठिन: सत्यापन में 2002 की सूची को मानक बनाया गया है। कई लोग इसे पूरा नहीं कर पाते, जिससे उन्हें रेड जोन में डाल दिया जाता है।
- मतदान अधिकार पर खतरा: यदि नाम हटाए गए, तो उन्हें मतदान का अधिकार खोने का डर है।
- CAA से जुड़ी दुविधा: नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 के तहत आवेदन करने पर उन्हें पहले विदेशी के रूप में पहचान बनानी होगी, जिससे मौजूदा अधिकार और लाभ प्रभावित हो सकते हैं।
राजनीतिक और सामाजिक महत्त्व
मतुआ समुदाय पश्चिम बंगाल में महत्वपूर्ण वोट बैंक हैं। उनके वोट उत्तर और दक्षिण 24 परगना, नादिया और बोंगांव, रानाघाट, जंगीपुर जैसे सीमावर्ती इलाकों में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। 2026 विधानसभा चुनाव से पहले SIR को लेकर तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी आमने-सामने हैं।
मतुआ समुदाय की चिंता और असुरक्षा दर्शाती है कि SIR प्रक्रिया से जुड़े दस्तावेज़ और पहचान के मुद्दों को समय पर हल करना जरूरी है।